Wednesday, August 26, 2020

बातें-मुलाकातें: 12 (बासु भट्टाचार्य )

वैसे तो बासु भट्टाचार्य जी ने अनुभव, आविष्कार, गृहप्रवेश, पंचवटी और आस्था जैसी कई बेहद उम्दा फिल्में बनाई हैं, लेकिन उन्हें सबसे ज्यादा जाना जाता है, तीसरी कसम के लिए. यह फिल्म भले ही कारोबारी लिहाज से कामयाब न रही हो, लेकिन हिंदी सिनेमा के इतिहास में एक मील के पत्थर के रूप में दर्ज है. इसे 1966 में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था.


बहरहाल, मौका था साहित्य अकादमी द्वारा साहित्य और सिनेमा पर आयोजित तीन दिवसीय सेमिनार का, जहाँ भट्टाचार्य फणीश्वर नाथ रेणु जी की कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर आधारित अपनी फिल्म तीसरी कसम के बारे में चर्चा के लिए आए थे.

अपने व्याख्यान में उन्होंने इस फिल्म की निर्माण यात्रा के बारे में बहुत दुर्लभ जानकारियाँ साझा कीं. व्याख्यान के बाद जब वह इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के आॅडिटोरियम से बाहर आए तो मैंने उन्हें थाम लिया और अपना परिचय देने के बाद उनके व्याख्यान की तारीफ करते हुए उनसे कहा कि मैं उनका इंटरव्यू करना चाहता हूँ.

चलते-चलते उन्होंने पूछा कि आपने तीसरी कसम देखी है? मैंने नहीं देखी थी, इसलिए न में जवाब दिया. इस पर वह बोले कि फिर मैं आपसे बात नहीं करूंगा. मैंने कहा कि लेकिन मैंने आपकी अनुभव और आविष्कार देखी हैं. पहले उन्होंने मुझे घूरा और बोले कि ठीक है, पर ज्यादा वक्त मत लीजिएगा. मैंने कहा हद से हद पंद्रह मिनट.

और फिर हम वहीं लाॅन में पड़ी कुर्सियों पर बैठ गए. मैंने डिक्टाफोन शुरू कर दिया और फिर जो बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ, वह तकरीबन पौन घंटा चला.

बहुत सारे सवाल-जवाब हुए. एक सवाल उनकी आने वाली फिल्म आस्था के बारे में भी था, जिसमें ओमपुरी, रेखा और नवीन निश्चल मुख्य भूमिकाओं में थे.

मैंने उनके एक पुराने इंटरव्यू में पढ़ा था कि इस फिल्म की कहानी उन्होंने अमिताभ बच्चन व रेखा को ध्यान में रखकर लिखी थी. इंटरव्यू में उन्होंने साफ कहा था कि यह फिल्म कोई और नहीं कर सकता. अगर अमिताभ इस फिल्म को करने के लिए राजी नहीं होते तो मैं यह फिल्म कभी नहीं बनाऊंगा.

मैंने उन्हें यह बात याद दिलाई तो वह बिदक गए. उन्होंने कहा कि उन्होंने ऐसा कभी नहीं कहा. वह इंटरव्यू मेरी इकट्ठा की गई रिफ्रेंस क्लिपिंग्स में सुरक्षित था और आज भी मेरे पास रखा हुआ है, इसलिए मुझे उनके इस जवाब पर हैरानी हुई. और जिस पत्रकार ने वह इंटरव्यू लिया था, वह एक सीनियर और संजीदा फिल्म जर्नलिस्ट थी, इसलिए यह मनगढ़ंत होगा, ऐसी कल्पना नहीं की जा सकती थी. पर मुझे उस समय यही ठीक लगा कि इस बात को तूल न दिया जाए और इंटरव्यू को सुचारू रूप से चलने दिया जाए. और मैंने ज्यादा बहस करने की बजाए, बात को वहीं खत्म कर दिया. पत्रकारिता के दौरान यह पहला मौका था, जब मैंने सबूत होते हुए भी बहस की बजाए समर्पण का रास्ता चुना था.

शायद इसी का नतीजा था कि यह इंटरव्यू बहुत अच्छा रहा और यह मेरे किए गए सबसे गंभीर साक्षात्कारों में से एक है.

आज सिनेमा के इस दिग्गज की पुण्यतिथि है, इस अवसर पर उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि के साथ यह साक्षात्कार यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ. अगर आपको गंभीर किस्म के सिनेमा में रुचि रही है तो यह आपको पसंद आएगा.

Interview





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