Sunday, April 21, 2013

ढूंढते रह जाओगे


अक्सर हम एक से एक बेहतरीन विज्ञापनों से गुजरते हैं, कभी ये विज्ञापन प्रिंट में होते हैं, कभी टीवी के पर्दे पर, कभी किसी और मीडिया पर...किसी का विज्युअल हमें मंत्रमुग्ध कर देता है, किसी के शब्द, किसी का डायरेक्शन हमें बहुत प्रभावित करता है, तो कोई अपनी समग्रता में हमारे दिलो-दिमाग पर अपनी छाप छोड़ जाता है. लेकिन, हम शायद ही कभी यह जानने की कोशिश करते हैं कि आखिर ये बेहतरीन काम, है किसके दिमाग की उपज...और अगर करते भी हैं तो जान नहीं पाते. क्योंकि किसी भी विज्ञापन में उसकी रचना प्रक्रिया से जुड़े लोगों के बारे में जानने का कोई जरिया नहीं होता. ये वो सितारे हैं, जो आसमान में मौजूद होकर उसे रोशन तो करते हैं, लेकिन खुद चमकते नजर नहीं आते. 


विज्ञापन एक ऐसी विधा है, जो ज्ञान, विज्ञान (मानव व्यवहार विज्ञान) कला का अद्भुत संगम है, जैसा कि ज्ञान, सूचना और मनोरंजन की सभी विधाएं होती हैं. आप चाहे एक किताब लीजिए, अखबार लीजिए, नाटक लीजिए, फिल्म लीजिए...या कोई भी मास अपील वाला मीडिया लीजिए, सभी में अच्छे खासे अनुभव और जानकारी की दरकार होती है. लेकिन, विज्ञापन की दुनिया ऐसी है, जहाँ आपको अनुभव और जानकारी के अलावा एक अपने ही किस्म की सतर्कता की भी जरूरत होती है. क्योंकि यहाँ ‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी’ का सिद्धांत किसी भी अन्य मीडिया/विधा की तुलना में ज्यादा काम करता है. बल्कि, हर छोटी से छोटी बात में आपको इसका पालन करना पड़ता है. कभी कोई चीज कानून के खिलाफ जा सकती है, कभी किसी व्यक्ति या समूह की भावनाओं के खिलाफ तो कभी उसके खिलाफ, जिसके लिए वह विज्ञापन किया जा रहा है. 

क्या यह बात आपको हैरान नहीं करती कि इतनी सारी खूबियों से युक्त और हर समय तलवार की धार पर चलने वाले इन सृजनकर्मियों के बारे में आप कभी जान नहीं पाते. दशकों पहले का विज्ञापन भले ही आपके जेहन में आज भी तरोताजा हो, लेकिन आपको यह चीज कभी नहीं अखरती कि आप जिस तरह किसी गीत के पसंद आने पर उसके गायक, संगीतकार या गीतकार का नाम खोजने के लिए बेचैन हो उठते है, उतनी बेचैनी एक जिंगल को गुनगुनाते हुए आपके मन में कभी उसके गायक, म्यूजिक कंपोजर या राइटर के बारे में जानने के लिए कभी नहीं पैदा होती. फिल्म पसंद आने पर आप डायरेक्टर का नाम जानना चाहते हैं ताकि उसकी निर्देशित अन्य फिल्में भी देख सकें. लेकिन किसी विज्ञापन के डायरेक्टर के बारे में जानने की कोशिश आपने शायद ही कभी की हो. विज्ञापनों में इस्तेमाल किए गए जुमलों को आप रोजमर्रा की जिंदगी में धड़ल्ले से यूज करते हैं, लेकिन वे किसके दिमाग की उपज होंगे, यह बात कभी आपके दिमाग में नहीं आती. विज्ञापन में दिखने वाले जिस मॉडल से प्रेरित होकर आप एक उत्पाद खरीदने का फैसला करते हैं, अगर वह खेल या सिनेमा की दुनिया की सेलिब्रिटी नहीं है तो आपको इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसका एक अदद नाम भी होगा, जो आपको पता होना चाहिए.

यह सिर्फ विज्ञापन ही हैं, जो सर्जक के बारे में कुछ नहीं बताते. वर्ना हर किताब के साथ उसके लेखक, प्रकाशक, संपादक, अनुवादक का नाम होता है. हर पेंटिंग या कार्टून पर किसी न किसी कोने में उसके रचयिता के हस्ताक्षर मिल जाते हैं, हर फिल्म में उसके निर्माण में योगदान देने वालों की एक लंबी फेहरिश्त फिल्म के शुरू में अथावा आखिर में नजर आ ही जाती है, नाटकों तक में नाटक से पहले या बाद में उससे जुड़े लोगों का परिचय दर्शकों को दे ही दिया जाता है...कहने का आशय यह है कि सृजन की हर विधा में सर्जकों का नाम प्रस्तुत करने की परंपरा है, सिर्फ विज्ञापनों को छोड़कर. प्रिंट  में कम से कम विज्ञापन रचने वाली एजेंसी का तो नाम होता है, लेकिन टीवी और न्यूमीडिया एडवर्टाइजिंग में वह भी गायब हो जाता है. 

एक आम आदमी तो छोडि़ए, विज्ञापन की दुनिया से संबंध रखने वाला भी शायद ही कोई व्यक्ति हो, जो विज्ञापन रचना से जुड़े पचास नाम भी गिना पाए. यहां तक कि अगर  प्रह्लाद कक्कड़, एलिक पद्मसी, पीयूष पांडे जैसे एडवर्टाजिंग सेलेब्स की भी बात करें तो एक दर्जन नाम से आगे शायद ही आगे बढ़ पाएं. बेहतरीन से बेहतरीन परफॉर्म  करने वाला भी इसमें गुमनाम ही बना रहता है. नाम होता है, लेकिन इससे निकलकर दूसरी दुनिया में आने के बाद. आज थिएटर और फिल्मों की कई नामचीन हस्तियां हैं, जिनका उद्भव विज्ञापन की दुनिया से हुआ है. श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, जान मैथ्यू,अनुभव सिन्हा जैसे प्रसिद्ध निर्देशक,  जैकी श्राफ, प्रीति जिंटा, मिलिंद गुणाजी, मिलिंद सोमन जैसे कलाकार, प्रसून जोशी जैसे गीतकार, लुईस बैंक्स जैसे संगीतकार...सबकी प्रतिभा की फसल विज्ञापनों की जमीन से ही खादपानी लेकर परवान चढ़ी है. 

हर सर्जक को उसके सृजन का श्रेय मिलना चाहिए, इससे भला किसे इंकार होगा. लेकिन, विज्ञापनों की दुनिया में ऐसा शायद इसलिए नहीं हो पाता कि इसमें जो टारगेट आफ आडियेंस है, वह खरीदार नहीं है. आप किताब पढ़ने के लिए पैसा देते हैं, फिल्म देखने के लिए पैसा देते हैं, टीवी देखने के लिए नियमित भुगतान करते हैं,  नाटक या संगीत प्रस्तुतियों का आनंद लेने के लिए पैसा चुकाते हैं, लेकिन आपको विज्ञापन मुफ्त में मिलते हैं. आप चाहे एक मैगजीन खरीदें या सिनेमा का टिकट या किसी चैनल का सब्सक्रिप्शन लें, विज्ञापन आपको साथ में वैसे ही फ्री मिलते हैं, जैसे चाय के पैकेट के साथ सिरामिक कप...

इसी लिए विज्ञापन का बाजार केंद्रित मनोविज्ञान किसी भी विज्ञापन की गहराई में जाने का अवसर नहीं देता. क्योंकि इसमें खरीदार वह है, जिसे खुद को बेचना है. वह विज्ञापन बनवाने के लिए पैसा भुगतान करता है, उसे आप तक पहुंचाने के लिए पत्र-पत्रिकाओं, टीवी चैनलों, रेडियो को पैसा देता है. चाहे यह स्पेस सेंटीमीटरों में हो या सेकेंडों में, उसका खरीदा होता है और उसके मनचाहे इस्तेमाल का उसे पूरा हक देता है. जाहिर है कि इस स्पेस या टाइम का हर अंश वह अपने उत्पाद को बेचने के लिए ही इस्तेमाल करेगा. न कि उन एक दर्जन लोगों को, जो उस विज्ञापन के निर्माण से जुड़े हुए हैं. और जिन्हें ये फ्री में मिलते हैं, उन्हें इनके इतिहास, भूगोल और ज्यामिती के जानने न जानने से कोई फर्क नहीं पड़ता और न ही इसकी कोई जरूरत महसूस होती है.

संदीप अग्रवाल
नागपुर

Thursday, April 4, 2013

दावे हैं, दावों का क्या


विज्ञापनों की दुनिया में वादों, दावों और छलावों में बहुत ज्यादा फर्क नहीं है. लेकिन, जब मकसद सिर्फ बेचना हो, तो इस बेचने के लिए खरीदार को फुसलाने के लिए उसे किसी भी तरह से गुमराह किया जा सकता है. और यह कोई आज
से नहीं हो रहा है, सदियों से हो रहा है. चाहे वह पानी मिले दूध को ‘पियोर’ बताकर बेच रहा ग्वाला हो, या सड़े फलों को ‘फिरेश’ बताने वाला रेहड़ीवाला. चाहे घटिया कपड़े को ‘लाइफलोंग’ कहकर बेचता कपड़ेवाला हो या एक लीटर घी को एक किलो कहकर तोलता लाला. जो भी बेच रहा है, उसे बेचने के लिए झूठ बोलने में जरा भी हिचक, शर्म या डर नहीं है.

इससे बेहतर ला दो तो मूंछे मुंड़ा दूँ, ऐसा सुरमा जिसे आंखों में लगाकर दिन में तारे नजर आ जाएं, इस तेल को लगाने से गंजे सिर पर बालों की फसल लहलहाने लगेगी, यह बाम 36 तरह के दर्दों से छुटकारा दिलाता है...होश संभालने से लेकर अब तक हम ऐसे सैकड़ों दावों और वादों को फुटपाथ और बस-ट्रेनों में सामान बेचने वालों से सुनते बड़े हुए हैं. पर हमने न किसी को मूंछे मुंडाते देखा है, न किसी को यह पुष्टि करते कि उसे फलां सुरमा लगाने से दिन में तारे दिखाई देने  लगे हैं, 36 तरह के दर्द से छुटकारा दिलाने वाला बाम 37 वां दर्द पैदा कर जाता है, गंजेपन का तेल लगाते-लगाते सिर की बजाए हथेलियों पर बाल उग आते हैं...लेकिन, दावे करने वालों के माथे पर शिकन तक नहीं आती. उनका काम बदस्तूर जारी रहता है. कभी-कभी कोई शिकायत लेकर उनसे लड़ने भी पहुंच जाए तो ये उल्टे उसी की गलती बताते हैं और उसे एक और ‘शीशी’ थमाकर फिर से झांसे में ले लेते हैं.

इलीट नजरिए से यह भदेस बाजार है, छोटे लोगों की छोटी-छोटी मक्कारियां हैं. लेकिन, इन्हीं छोटे मक्कारों ने अरबों-खरबों के टर्नओवर वाले ‘बड़े’ कारोबारियों को राह दिखाई है. इसीलिए अजीब नहीं लगता, जब कोई टूथपेस्ट दांतों की सारी समस्याओं से छुटकारा दिलाने की बात करता है या कोई क्रीम सांवले लोगों को गोरेपन का वरदान देती नजर आती है, या कोई एनर्जी फूड नाटे बच्चों की लंबाई को साल में दो फुट बढ़ाता है तो दूसरा उसे स्मार्ट बनाता है.



रात को बारह बजे के बाद से सुबह करीब आठ बजे के दरम्यां दो दर्जन से ज्यादा चैनलों पर टेली शॉपिंग में प्रचारित उत्पादों ने तो दावों की सारी हदें ही पार कर दी हैं. ये आपको मोटापे, छोटे कद,डायबिटीज, इनफर्टिलिटी, बड़े-छोटे स्तनों, नपुंसकता जैसी शारीरिक व्याधियों से ही नहीं, बल्कि बुरी नजर, दुर्भाग्य और प्रेतात्माओं जैसी परालौकिक चीजों तक से छुटकारा दिलाने का दम भरते हैं. और इन दावों में विश्वसनीयता का परिमाण बढ़ाने के लिए ये टेलीविजन और फिल्मों के कुछ फुसर्तिया सितारों को भी भाड़े पर ले आते हैं.

ऐसा नहीं इन झूठे वादों-दावों पर किसी की नजर नहीं जाती. समय-समय पर इनके खिलाफ शिकायतें भी हुई हैं और कार्रवाईयां भी. कई बड़ी कंपनियों को एएसआई (एडवर्टाइजिंग स्टैंडर्ड काउंसिल ऑफ इंडिया) के आदेश पर अपने विज्ञापनों को वापस लेना पड़ा है. पिछले साल नवंबर में नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी के कुछ स्टुडेंट्स ने झूठे दावे करने के लिए दस एमएनसीज के खिलाफ केस दायर किया था. इसके दो ही हफ्तों के भीतर, फूड सेफ्टी स्टैंडड्र्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया ने भी 38 कंपनियों को नोटिस भेजा था, जिनके विज्ञापन भ्रामक पाए गए थे. उनका कहना है कि झूठे दावों वाले विज्ञापन न सिर्फ अनैतिक हैं, बल्कि अनेक कंज्यूमर राइट्स का वॉयलेशन भी करते हैं. ऐसे ही कई मामले इंडीविज्युअल्स द्वारा की गई पहलकदमियों के भी सामने आए हैं.

लेकिन, ऐसे छलिया विज्ञापनों की तादाद अभी भी इतनी ज्यादा है कि कोई भी कदम अपर्याप्त ही प्रतीत होता है. इनके पक्षधरों का कहना है कि एक ओपेन मार्केट इकोनॉमी में कम्पटीशन इतना ज्यादा है कि अपने प्रोडक्ट को बेचने के लिए बढ़ा-चढ़ाकर दावे करने ही पड़ते हैं और आज का उपभोक्ता कोई बेवकूफ नहीं है, उसे इस बात की पूरी जानकारी है कि किसी चीज के असर की क्या लिमिटेशंस हैं.

तो क्या यह माना जाए कि सिर्फ झूठ के सहारे ही उत्पाद को बेचा जा सकता है? या फिर यह विद्या सिर्फ एक बार ही काम करती है? इस बारे में बहुत यकीनी तौर पर कुछ कह पाना बहुत मुश्किल है. क्योंकि इस बारे में यूनिवर्सल ट्रुथ जैसी कोई चीज लागू नहीं होती. कई बार अनुभव हमारा अगला कदम निर्धारित करता है, जिसके आधार पर हम किसी चीज हो दोबारा खरीदने या न खरीदने का फैसला लेते हैं, तो कई बार हमारी मासूम उम्मीदें हमारी समझदारी पर भारी पड़ जाती हैं और हम एक ही चीज को ठगे जाने के बावजूद लंबे अर्से तक बार-बार खरीदते रहते हैं. पर यह तय है कि लॉन्ग टर्म में ‘पहले इस्तेमाल करें, फिर विश्वास करें’ का फंडा ही ज्यादा कारगर साबित होता है. इसी चीज को ब्रांड वैल्यू कहते हैं, जब विज्ञापनों में किए गए दावों से ज्यादा हमारे खुद के या परिचितों के अनुभव हमें किसी खास ब्रांड के खास उत्पाद को खरीदने-आजमाने के लिए प्रेरित करते हैं. गारंटी तो सभी देते हैं, लेकिन हमारे लिए हमारी संतुष्टि किसी भी गारंटी या वारंटी से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है.

एक पुरानी कहावत है कि सच जितनी देर में बिस्तर से उतर कर अपने जूते पहन रहा होता है, झूठ उतनी देर में दुनिया का सफर तय कर आता है. लेकिन, कामयाबियों का इतिहास यह भी कहता  है कि झूठ अपने इस सफर में इतना थक चुका होता है कि दोबारा कहीं जाने के काबिल नहीं रहता और सच धीरे-धीरे ही सही, मगर चलता रहता है.

चलते-चलते
एक बार एक आदमी को अपना बंगला बेचने की जरूरत आन पड़ी. अच्छे दाम मिलें, इस उम्मीद के साथ उसने एक विज्ञापन एजेंसी की सेवाएं लीं. जब एजेंसी ने उसका विज्ञापन तैयार करके अप्रूवल के लिए उसके पास भेजा तो  विज्ञापन
में उसके बंगले की इतनी तारीफ की गई थी कि उसने बंगला बेचने का अपना
इरादा ही बदल दिया.


संदीप अग्रवाल

Sunday, March 3, 2013

इमेज के सहारे ब्रांड की बिक्री


वर्षों से तरह-तरह के उत्पादों को बेचने के लिए कंपनियों द्वारा मशहूर हस्तियों का सहारा लिया जाता रहा है. ये हस्तियां ज्यादातर फिल्म, खेल (खासकर क्रिकेट) जैसे आम रुचि के क्षेत्रों से ताल्लुक रखने वाली होती हैं. ऐसी हस्तियां, जिनके बारे में यह माना जाता है कि वे अपने कद्रदानों के कंज्यूमर बिहेवियर को मोटिवेट, इन्फ्ल्युएंस या चेंज करने में सक्षम हैं. लक्स, इस मानसिकता का एक सबसे बड़ा कामयाब उदाहरण है, जिसने करीब सात दशकों से फिल्मी सितारों का सौंदर्य साबुन होने की दावेदारी को बनाए रखा है. ऐसे बहुत से उत्पाद हैं, जिनके मॉडल सेलिब्रिटीज हैं. और बावजूद लोगों की इस चिरशंका के, कि वे खुद शायद ही कभी उन उत्पादों को इस्तेमाल करते हों जिनका कि वे प्रचार करते हैं, वे लोगों को बहलाने में लगभग कामयाब ही रहे हैं. 

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लेकिन, पिछले दो-तीन दशकों में यह परिदृश्य काफी बदल चुका है. विकल्पों और ओवरएक्सपोजर के इस दौर में सेलिब्रिटीज का अनुसरण करने करने की आम प्रवृत्ति घट रही है. अब हर शख्स अपने उठाए हर कदम का फैसला खुद करना चाहता है, सुझाए नुस्खों को आजमाने की बजाए खुद नए प्रयोग करना चाहता है. जरूरी नहीं कि वह वही साबुन या शैंपू इस्तेमाल करे, जो उसका प्रिय खिलाड़ी या फिल्मी सितारा करता है. ऐसे में विज्ञापन की दुनिया ने एक नया पैंतरा आजमाना शुरू किया है, सेलिब्रिटीज की सितारा हैसियत की बजाए उनकी पॉपुलर इमेज को कैश करने का. 

इसमें सबसे आगे हैं, नवाब सैफ अली खान पटौदी जिनकी प्लेब्वाय की पॉपुलर इमेज को उनके किए अस्सी फीसदी विज्ञापनों में कैश होते देखा जा सकता है. करीना से उनके रोमांस के दो-तीन सालों में न सिर्फ उनकी इस छवि, बल्कि इस ओवरहाइप्ड रिश्ते का भी भरपूर दोहन किया गया है. इसी तरह अक्षय कुमार अपनी एक्शन किंग की फिल्मी इमेज का फायदा विज्ञापनों में भी उठाते नजर आते हैं. कहीं वे एक कोल्डड्रिंक के लिए पहाड़ से छलांग लगाते हैं तो कहीं एक साथ दस-दस शोहदों के छक्के छुड़ाते हैं. इसी प्रकार का दोहन हम खान त्रयी के अधिकतर विज्ञापनों को देख सकते हैं. सलमान खान के विज्ञापनों में वे अपनी ऑनस्क्रीन छिछोरेपन और चुलबुलेपन की मिली-जुली छवि के साथ उपभोक्ताओं को रिझाते देखे जा सकते हैं, तो शाहरुख का रीयल लाइफ का,गलती से आत्मविश्वास समझ लिए जाने वाले अहंकार को प्रदर्शित करता चेहरा विज्ञापनों में भी उसी अकड़ के साथ नजर आता है. इन दोनों के विपरीत तीसरे खान यानि आमिर की रीयल लाइफ की सहजता वाली छवि विज्ञापनों में भी उपभोक्ताओं से उसी सहजता से पेश आती नजर आती है और मि. परपेक्शनिस्ट का टैग वे विज्ञापनों में भी उसी नफासत के साथ कैरी करते हैं. रणवीर की अलमस्त सम्पन्नता, हृतिक रोशन की अतिआत्मविश्वास से भरपूर अभिजात्यता, जूही का चुलबुलापन, करीना कपूर का नकचढ़ापन, कैटरिना का एलियन लुक और लैंग्वेज,  दर्शकों को उबासियां लेने को को मजबूर करता अभिषेक बच्चन का बुजुर्गाना शैथिल्य...ऐसी अनेक छवियां हैं, जो विज्ञापन की दुनिया में बड़ी चालाकी से कैश की जा रही हैं. फिल्मी हस्तियों की छवियों को भुनाना अपेक्षाकृत आसान होता है, क्योंकि ये पहले ही दर्शकों/उपभोक्ताओं के दिमाग में स्थापित हो चुकी होती हैं. लेकिन, नॉन फिल्म सेलिब्रिटीज के मामले में यह थोड़ा जोखिम भरा हो सकता है....और कुछ मामलों में शायद मूर्खता भरा भी.

विख्यात तबलावादक जाकिर हुसैन को संगत देती चाय ताज का विज्ञापन सालों तक सफलतापूर्वक चला, जिसमें वे अपनी सफलता का श्रेय ताज को देते नजर आते थे और वाह उस्ताद की जगह कद्रदानों से, विनम्रतापूर्वक वाह ताज बोलने का इसरार करते थे. लेकिन, एक बार चूक हो गई. उस्ताद की उस्तादी कुछ ज्यादा ही हो गई और ताज से बेहतर चाय लाकर दिखाने  पर तबला बजाना छोड़ देने के ऐलान से शुरू हुए प्रचार गिमिक ने न जाने कैसे पहले अफवाह और फिर खबर की शक्ल ले ली और इसे लेकर कलाजगत में उस्ताद को काफी भर्त्सना झेलनी पड़ी. इस तरह पूरा कैंपेन बाउंस बैक कर गया और फिर बाद में ताज के विज्ञापनों में तबले की थाप सुनाई  ही देनी बंद हो गई. 

लेकिन, ऐसा कभी-कभी ही होता है. वर्ना ऐसे प्रयोगों का अधिकतम जोखिम इतना ही होता है कि ये बेअसर रहें और विज्ञापन अथवा उत्पाद को अपेक्षित सफलता न दिला पाएं. शाकाहार को प्रमोट करते एक विज्ञापन अभियान में टी.एन.शेषन सरीखे आक्रामक नौकरशाह का हाथ में गाजर लेकर राजनेताओं को कच्चा चबाने का दावा करना, चेहरे के दाग-धब्बे मिटाने वाली एक क्रीम के विज्ञापन में बेदाग छवि वाली पहली महिला आईपीएस किरण बेदी, पेन के विज्ञापन में राइटिंग और फाइटिंग का घालमेल करते शायद जावेद अख्तर ऐसे ही कुछ बेअसर प्रयोगों का उदाहरण हैं. 

सच तो यह है कि छवियों का इस्तेमाल बहुत संवेदनशीलता और सतर्कता की मांग करता है. वर्ना कई बार ये इतनी शक्तिशाली हो जाती हैं कि उत्पाद और विज्ञापन, दोनों उनके आगे बौने हो जाते हैं. जैसा कि बीते साल एक पंखे के विज्ञापन में हुआ, जिसमें गुजरे जमाने के सुपरस्टार राजेश खन्ना, आनंद शैली में मुझसे मेरे फैन कोई नहीं छीन सकता बाबू मोशाय! कहते नजर आए. विज्ञापन का संदेश और ब्रांड, दोनांे उनके नोस्टेल्जिक मैनेरिज्म की छाया में छिप गए और इस एक्स सुपरस्टार का पहली बार किसी विज्ञापन में आना, विज्ञापन से ज्यादा चर्चित हो गया. 

ऐसा कभी भी हो सकता है, क्योंकि छवियां तो छवियां हैं, जो वक्त के हिसाब से अपना आकार बदलती रहती हैं और रंगरूप भी. इनकी सवारी वही कर पाता है, जो इनकी इस फितरत के रोम-रोम से वाकिफ हो. वर्ना तो छवियां कब अपने सवार को मैदाने जंग में पटखनी खिला दें, कोई नहीं बता सकता.

Sunday, January 20, 2013

सुगंध से आती सड़ांध


सुगंध और इंसान का रिश्ता बहुत पुराना है. इंसान ही क्यों, अनेक जीव-जंतुओं के जीवन में भी सुगंध एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. खासकर जब अपोजिट सेक्स के बीच के आकर्षण की बात चलती है तो यह सुगंध किसी दूत की तरह भावनाओं का सम्प्रेषण करने से भी पीछे नहीं हटती. दूसरे शब्दों में कहें तो खुशबू कुदरत की वह देन है, जो इंसान और अनगिनत प्राणियों के जीवन को तरह-तरह से महकाती है-कभी खाने की खुशबू , कभी फूलों की खुशबू, कभी पूजा की खुशबू तो कभी प्यार की खुशबू. 


ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि जब सुगंध बाजार में उतरती है, तो अपनी सारी गरिमा को तजकर एकदम बाजारू क्यों हो जाती है? क्या बिकने के लिए बाजारू होना जरूरी है? अगर नहीं तो क्यों सारी परफ्यूम्स और डियोज के विज्ञापन इसकी भूमिका को सिर्फ महिलाओं को आकर्षित करने तक सीमित करने वाले सिंगल ट्रैक पर चलते नजर आते हैं? किसी विज्ञापन में चाकलेट से बने एक पुरुष के विभिन्न अंगों को महिलाएं नोच-नोचकर खाती हैं, किसी में पुरुष नायक एक परफ्यूम इस्तेमाल करता है और उसे परियां अथवा पराग्रही नारियां आकर घेर लेती हैं. एक और विज्ञापन में युवा नायक द्वारा इस्तेमाल डियो की खुशबू एक नवविवाहिता स्त्री के मन को डगमगा रही है, तो किसी में अपने पति की बेवफाई से खफा महिला उसकी परफ्यूम की शीशी को घर के बाहर बैठे एक भिखारी की ओर फेंक देती है और अगले फ्रेम में पति की प्रेमिका उस भिखारी की ओर बढती दिखाई देती है. 

ये और इन जैसे अनेक विज्ञापन दो ऐसे मिथक स्थापित करने का असफल प्रयास करते हैं, जिन पर शायद ही कोई यकीन करे. एक, सुगंध सिर्फ महिलाओं को आकर्षित करने के लिए अस्तित्व में है और दूसरा यह कि महिलाओं को आकर्षित करने के लिए सिर्फ एक ब्रांडेड परफ्यूम ही काफी है. जबकि वास्तविकता यह है सुगंध नर और मादा के मन में प्रेम व कामभावना उत्पन्न करने में समान भूमिका निभाती है (भले ही इस प्रोसेस की टाइमिंग और टाइप अलग-अलग हों)  और कोई भी महिला सिर्फ परफ्यूम के आधार पर किसी भिखारी से संबंध नहीं बनाएगी.

इस तरह ये विज्ञापन दोधारी तलवार की तरह, दोनों प्रकार से स्त्री की गरिमा को धूमिल करते हैं. ये न सिर्फ उसके विवेक को उसकी कामुकता के सामने खारिज करते हैं, बल्कि उसकी उपलब्धता को एक परफ्यूम की शीशी जितना सस्ता साबित करने की धृष्टता से भी बाज नहीं आते. अनेक सांस्कृतिक और नारीवादी संगठनों/व्यक्तियों द्वारा समय-समय पर ऐसे विज्ञापनों के खिलाफ आपत्तियां भी दर्ज कराई गई हैं, और इनके प्रसारणों पर रोक लगाने के आश्वासन भी दिए गए हैं. लेकिन, नतीजा ढाक के ढाई पात जैसा ही है और इनका प्रसारण बदस्तूर जारी है.

ऐसे विज्ञापनों की भरमार का एक और निराशाजनक पहलू यह है कि इनकी भीड़ में शालीन किस्म के परफ्यूम एड नेपथ्य में चले जाते हैं. शायद उनका हश्र अनेक बहुत सारे सुगंध उत्पादों के निर्माताओं को सेफ जोन में रहते हुए चलने के लिए बाध्य करता है और वे भी अपने प्रतिद्वंद्वी को पछाड़ने के लिए उससे भी ज्यादा बोल्डनेस अपनाने को तरजीह देते हैं. इसका अर्थ यह नहीं कि गंदगी की इस बाढ़ को रोका नहीं जा सकता. बस जरूरत थोड़ी सख्ती और साहसिक कदम उठाने की है. रचनात्मकता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बिना पर किसी को भी पूरी संस्कृति को प्रदूषित करने की आजादी तो नहीं ही दी जा सकती.

यह सही है कि वैज्ञानिक शोध भी इस बात की पुष्टि करते आ रहे हैं कि प्रेम, आकर्षण और यौन संबंधों में सुगंध की भूमिका को हल्के में नहीं लिया जा सकता. लेकिन, ऐसी खुशबू शायद ही अभी तक अस्तित्व में आई हो, जो इस काम को सेकेंडों में अंजाम दे सके. खुशबू तो जितनी तेजी से फैलती है, उतनी ही तेजी से वायुमंडल में विलुप्त भी हो जाती है. लेकिन, पे्रम आगे बढ़ने में अपना समय लेता है. जाहिर है कि अगर सिर्फ परफ्यूम के सहारे दुनिया ( आधी दुनिया) को फतह करने के मिशन पर चलेंगे तो कोई नहीं जानता कि कितना परफ्यूम हवा में रहेगा, कितना बॉडी पे और खुशबू कब तक चलेगी. 

चलते-चलते

क्यों न खुशबू की भूमिका के बारे में कुछ और वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित बातें जान ली जाएं!
1. निर्विवाद रूप से सुगंध नर और मादा के बीच अंतरंगता और प्रेम को प्रोत्साहित करती है.
2. पुरुष महिलाओं की देहगंध को माह के उस समय ज्यादा पसंद करते हैं, जब वे अधिक फर्टाइल होती हैं. 
3. महिलाएं ऐसे पुरुषों की गंध को पसंद करती हैं, जिनकी जेनेटिक्स उनके खुद के समान हो, लेकिन बहुत ज्यादा समानता विपरीत प्रभाव छोड़ जाती है.
4. ऑव्यूलेटिंग महिलाओं को डोमिनेंट पुरुषों की गंध ज्यादा  भाती है.
5. अंगूर की सुगंध की मौजूदगी में पुरुषों  को महिलाओं के फोटोग्राफ्स देखते हुए वे अपनी वास्तविक उम्र से औसतन छह साल छोटी नजर आती हैं.
6. परीक्षण किए हुए सभी 26 एरोमा, सबसे ज्यादा लवेंडर की खुशबू, पुरुषों की यौनेत्तजना को बढ़ाते हैं, जबकि महिलाएं मुलैठी की कैंडी, बेबी ऑयल जैसे कुछ एरोमा से उत्तेजित होती हैं, वहीं मेल कोलोन, भुने मांस और चेरी जैसे एरोमा बैकफायर करते हुए उन्हें टर्न ऑफ कर देते हैं.


संदीप अग्रवाल 
नागपुर