Friday, May 18, 2012

कमाल के किरदार !



किसी भी रचना और किरदार का रिश्ता ऐसा ही होता है, जैसा कि जिस्म का और रूह का. रचना अगर जिस्म है, तो किरदार उसकी रूह. फिल्मों, उपन्यासों, कहानी-नाटकों से कलाकृतियों तक, किरदार लगभग हर जगह मौजूद रहता है...किरदार न हो तो रचना कितनी भी महान क्यों न हो, दर्शक-पाठक से नाता नहीं जोड़ पाती. 

और तो और, अब तो विज्ञापन भी किरदार के बिना अधूरे से ही लगते हैं...खासकर टेलीविजन के विज्ञापन. जब से टेलीविजन के पर्दे पर रंग उतरे हैं, तभी से विज्ञापनों की रचनात्मकता ने सिर्फ ‘उत्पाद के फोटो के साथ उसे इस्तेमाल करने का मशवरा/गुजारिश/लालच देते  मॉडल्स’ वाले दौर से बाहर निकलने की कवायद शुरू कर दी थी, जो बढ़ते-बढ़ते ऐसे मुकाम पर आ चुकी है, जहाँ प्रोडक्ट से ज्यादा किरदार अपना असर छोड़ जाते हैं.

एक किरदार के तौर पर स्टारडम की बुलंदियों को छूने वाला पहला नामधारी ( जिसकी पहचान उसके नाम से की जा सके) किरदार संभवतः ललिता जी का है, जो तर्जनी से माथे को ठकठकाकर बोली गई अपनी पंचलाइन ‘सर्फ की खरीदारी में ही समझदारी है’ से टेलीविजन दर्शकों के दिलो-दिमाग पर छा गई थीं. इससे पहले सिर्फ फिल्मी सितारों की केंद्रीय भूमिका वाले विज्ञापन ही ऐसी छाप छोड़ पाते थे. एक अल्पज्ञात, नॉन स्टार मॉडल को मिले इस अप्रत्याशित स्टारडम ने ‘फेस टू नेक्स्ट डोर’ वाले ऐसे किरदारों के लिए रास्ता खोल दिया. हालांकि इससे पहले भी ‘न्यूट्रामूल दादा’, ‘कम्प्लान ब्वाय’ जैसे किरदार आ चुके थे. लेकिन बिना एडजेक्टिव के उनकी अपनी कोई शख्सियत नहीं थी.

इसके बाद अनेक विज्ञापनों में,अनेक किरदार सामने आते गए. कुछ आए-गए वाले थे तो कुछ ऐसे, जो दर्शकों की स्मृति में अमर हो गए. कई तो ऐसे भी किरदार आए, जिनके द्वारा विज्ञापित उत्पादों को आप शायद भूल भी गए हों, लेकिन उन किरदारों को नहीं भूले होंगे तो कई किरदार ऐसे भी, जिनके चेहरे भी आपको याद नहीं होंगे, लेकिन नाम नहीं भूले होंगे. क्या आपको पप्पू पास हो गया वाले कैडबरिज के विज्ञापन के पप्पू का चेहरा याद है, एशियन पेंट के विज्ञापन में ‘नया घर, नई गाड़ी, नई मिसेज...बढि़या है ’ में न आपको यह डायलाग बोलने वाले का चेहरा याद होगा, न सुनने वाले का, लेकिन सुनील बाबू नाम हमारी स्मृतियों में ऐसे बैठ चुका है, जैसे कि हमारा ही कोई सगा-संबंधी हो.

एक ओर नाम इतना ठोस असर छोड़ते हैं, वहीं अनेक ऐसे किरदार भी हैं, जिनके नाम विज्ञापन में कहीं नहीं सुनने में आते, लेकिन वो किरदार अपने चेहरों के साथ हमारे दिमाग में दर्ज हो जाते हैं. जैसे नोकिया के विज्ञापन में स्टेटस दिखाने वाला डैडी जी का शोहदा बेटा, सेंटर फ्रेश का ‘पापा, मैं फिर से फेल हो गया...’ बताकर चांटा खाने वाला बेटा, कुरकुरे की जूही चावला, महाशय दी हट्टी यानी एमडीएच मसालों के विज्ञापन में राजा-महाराजा की तरह हाथी पर सवार होकर आने वाले वयोवृद्ध महाशय जी, वोडाफोन (पहले हच) का हर समय पीछे-पीछे चलने वाला मासूम सा डॉगी, अंजान लड़की से चाकलेट मांगकर उसे घर छोड़ने का ‘अच्छा काम’ करने वाला एक सामान्य रंगरूप वाला नौजवान, मेंटोस खाकर बंदर से आदमी बनने वाला बंदर और दद्दू...सिलसिला लगातार जारी है. 

आज भी हमारे पास तरह-तरह के किरदार हैं... हर समस्या के समाधान का आइडिया देने वाले ‘सर जी’, हर मुश्किल हालात को अपने अनूठे अप्रोच से दिलचस्प बना देने वाले एनिमेटेड जोजो, माथे पर त्यौरियां चढ़ाए रहने वाला बॉस  हरी साडू, पेस्ट लेकर कीटाणुओं से लड़ते पप्पू और पापा, अपने ही बैंक को लूटने आया बेवकूफ सिक्योरिटी गार्ड बजरंगी, फ्लर्ट दोस्त को ठेंगा दिखाती अपर्णा उर्फ एप्स, पिताजी की पतलून को छोटी कराने आए भुलक्कड़ रमेश-सुरेश...एक लंबी फेहरिश्त है ऐसे किरदारों की, जो टेलीविजन के रास्ते आपके ड्राइंग-रूम में ही नहीं, बल्कि आपके सब कॉशस में प्रवेश कर चुके हैं.

पिछले कुछ अर्से से फिल्मों में नजर आने वाले किरदारों को हुबहू उसी तरह विज्ञापन में उतारने का एक नया चलन शुरू हो गया है. मसलन, सलमान खान दबंग के चुलबुल पांडे के गेटअप में एक खास ब्रांड की मोटरसाइकिल पर बैठकर बिल्ला का पीछा करते हैं तो सैफ खान एजेंट विनोद के गेटअप में पुंगी बजाते हुए एक बनियान का प्रचार करते नजर आते हैं...और रणवीर कपूर ने तो सभी को पीछे छोड़ दिया है. बाकी किरदार जहाँ फिल्म के रिलीज होने के बाद विज्ञापन में नजर आए, वहीं उनकी  फिल्म बर्फी के रिलीज से पहले ही वे उसके एक किरदार के गेटअप में अभी से एक सेल्युलर फोन सर्विस का एड करते नजर आ रहे हैं. अभी तक फिल्मों के बीच में प्रोडक्ट का चुपके से प्रचार करने का चलन था, जिसे सेरोगेट एडवर्टाइजिंग कहा जाता है. रणवीर ने टेबल उलट दी है, अब विज्ञापन के बीच फिल्म का प्रचार हो रहा है. सही है, कभी नाव गाड़ी पर तो कभी गाड़ी नाव पर... 

चलते-चलते
एक किरदार किस तरह वक्त के तमाम थपेड़ों को धता बताते हुए हमेशा तरोताजा बना रह सकता है, इसकी सबसे बेहतरीन मिसाल है अमूल की ‘‘अटरली...बटरली...सो डिलीसियस’’ सीरीज की मपेट गर्ल और उसके संगी-साथी....जो पिछले साढे़ चार दशकों से, देश-दुनिया की हर छोटी-बड़ी घटना पर अपनी चुटीली और रचनात्मक टिप्पणियों से हर उम्र के उपभोक्ताओं को लुभाती चली आ रहे हैं. दिलचस्प बात यह है कि अमूल गर्ल की रचना पोल्सन बटर गर्ल को मात देने के लिए की गई थी. 1967 में शुरू हुई यह विज्ञापन श्रंखला, विश्व की सबसे लंबे समय तक चलने वाली सीरीज बन गई है. 1976 के बाद आई इसकी चुनिंदा कहानियां  http://www.amul.com/m/amul-hits वेबसाइट पर संयोजित हैं. चाहे तो आप भी तीन पीढि़यों से चले आ रहे इस सागा का लुत्फ उठा सकते हैं.

संदीप अग्रवाल , नागपुर 




Monday, May 14, 2012

ये ‘अंडर’ की बात है...




वर्षों पहले रेडियो पर एक विज्ञापन लगभग रोज सुनने को मिलता था, जिसमें एक पात्र दूसरे से पूछता है कि क्या बात है, बड़े खुश नजर आ रहे हो? दूसरा जवाब देता था, ये अंदर की बात है. इस पर पहला पूछता था कि क्यों, रूपा बनियान पहन रखी है क्या? और दूसरे की हाँ में स्वीकारोक्ति और श्रोताओं को रूपा बनियान पहनने के सुझाव के साथ विज्ञापन खत्म हो जाता था. 

अब टेलीविजन, खासकर सेटेलाइट टेलीविजन के वर्चस्व से अंदर की बात पूरी तरह बाहर आ गई है. अब टेलीविजन पर अंडरगारमेंट्स के विज्ञापनों को देखना, तरह-तरह के अनुभव देता है. ये कभी हमें हंसी दिलाते हैं, कभी खिझाते हैं और कभी बुद्धू बनाते हैं.

एक विज्ञापन एक खास किस्म का बनियान पहनकर कभी आपको थिएटर की टिकट विंडो पर लगी लंबी लाइन में सबसे आगे खड़े होने का अधिकार दिलाता है और कभी ट्रैफिक पुलिसमैन को सड़क मंत्री की लाल बत्ती वाली गाड़ी को आपके रास्ते में आने से रोकने की ताकत देता है. वहीं दूसरे विज्ञापन में एक ब्रांड विशेष का बनियान पहनने वाला अभिनेता, बड़े आराम से तीन-चार गुंडों को विकलांग बना देता है, कत्ल की गुत्थी सुलझा लेता है. तो एक और विज्ञापन का नायक ‘ईव्ज टीजर्स’ के होश ठिकाने लगा देता है. एक और अंडरवियर विज्ञापन पहनने वाले को दुर्घटनाओं से बचाता है.

अब आप सोचते रहिए कि एक अंडरवियर में ऐसे कौन से तत्व होते हैं, जो पहनने वाले में इतनी ताकत भर देते हैं कि वह चार-छह खतरनाक बदमाशों से अकेले निपट सके. उसमें कौन से पवित्र मंत्र लिखे होते हैं, जो पहनने वाले को आने वाली आपदाओं से बचाते हैं. आपको इस सवाल का भी कोई गले उतरने वाला जवाब शायद ही मिले कि कपड़ों के नीचे पहनने वाली चीज की ब्रांड वैल्यू क्यों होती है और क्यों एक ब्रांड का अंडरवियर, दूसरों के मुकाबले दो से तीन गुनी कीमत वसूलता है.

इस ब्रांड को पहनने वालों का तर्क है कि यह उन्हें आत्मविश्वास से भर देता है.एक अंडरवियर का तो ब्रांड नेम ही आपको वीआईपी होने की अनुभूति देता है. इस फीलिंग के पीछे क्या लॉजिक  है, ये समझना बड़ा मुश्किल है. आप कौन से ब्रांड की शर्ट या जींस पहनकर लोगों से मिलते हैं, ये आपके स्टेटस को स्टैब्लिश करने में मददगार हो सकता है. लेकिन उस शर्ट या पैंट के नीचे आपने किस ब्रांड के अंडरवियर पहने हैं, इसका भी आपके स्टेटस से ताल्लुक है, इसे कैसे एक्सप्लेन किया जाए.

एक बड़ा दिलचस्प सवाल है कि एक सुपरमैन और  कॉमनमैन में क्या फर्क है? जवाब- कॉमन मैन अपना अंडरवियर पैंट के नीचे पहनता है और सुपरमैन पैंट के ऊपर...अगर अंडरवियर्स के एडवर्टाइजमैंट्स के एड- ऑंस  ( कॉन्फिडेंस, लक, चार्म, करेज, स्ट्रेंग्थ आदि ) पर यकीन करें तो इन्हें पैंट के अंदर पहनकर भी एक  कॉमनमैन  सुपरमैन होने की फीलिंग को एन्ज्वाय कर सकता है... और अगर पैंट पहनना भूल जाए तो भी, एक और अंडरवियर के विज्ञापन में सूखता 'ट्विंग' अंडरवियर उठाकर भागने वाले चिंपैंजी की तरह, नईनवेली हाउसवाइफ के शर्माने का आनंद तो ले ही सकता है. 

चलते-चलते...

इन दिनों अंडरवियर बम चर्चा में है. एफबीआई के सूत्रों के मुताबिक एक ब्रिटिश अंडरकवर एजेंट ‘बड़े आराम से’ कुख्यात आतंकवादी ग्रुप अलकायदा की यमन इकाई में सेंध लगाकर घुस गया और उसने अमेरिका में ‘अंडरवियर बम विस्फोट’ से विमान उड़ाने की साजिश को नाकाम कर दिया. इस घटना पर  भी तो एक और एडवर्टाइजमैंट बनाया जा सकता है ना?