Sunday, March 21, 2021

बातें-मुलाकातें: 51 (खुशवंत सिंह)

जिंदगी जिंदादिली का नाम है... आपने यह शेर जरूर सुना होगा. लेकिन अगर इस शेर को मूर्त रूप में देखना हो तो विख्यात अंग्रेजी लेखक व पत्रकार खुशवंत सिंह से बेहतर इसकी मिसाल शायद ही कोई मिले. जिन्होंने न सिर्फ पूरा जीवन जिंदादिली के साथ जिया, बल्कि ताजिंदगी बादानोशी और खिदमत-ए-हुस्न के बावजूद अपना सौवां जन्मदिन मनाने के बाद ही इस दुनिया से रुखसत ली.


खुशवंत सिंह की जिंदादिली का परिचय तो मुझे उनसे पहली ही मुलाकात में मिल गया. जब मैं उनके दिल्ली के खान मार्केट के पास सुजान सिंह पार्क स्थित उनके निवास स्थान पर पहुँचा. सुजान सिंह पार्क, दिल्ली का पहला अपार्टमेंट कॉम्प्लेक्स है, जिसे उनके पिता जी सरदार शोभा सिंह ने बसाया था और उनके पिता सरदार सुजान सिंह का नाम दिया था.

उनके घर के प्रवेश द्वार पर मेरा स्वागत उनकी सुरक्षा के लिए तैनात ब्लैक कमांडोज ने किया. लेकिन, जब मैंने उनसे बताया कि खुशवंत सिंह जी से मेरा अपाइंटमेंट है तो उन्होंने बिना हील हुज्जत के मुझे अंदर भेज दिया.
अपने नाम के अनुरूप ही खुशमिजाज सरदार खुशवंत सिंह जी अपनी विशाल काया के साथ आर्मचेयर पर आराम फरमा रहे थे. मेरे नमस्ते के जवाब में उन्होंने मुझे अपने सामने बैठने का इशारा किया. फिर पूछा, आप क्या लेंगे? गर्म या ठंडा?
‘सिर्फ सादा पानी...’ मैंने जवाब दिया.
‘सादा पानी तो इस घर में नहीं मिल पाएगा आपको....’ उन्होंने जिस शरारती मुस्कान के साथ यह बात कही, वह आज भी मेरे जेहन में ताजा है. यह उनकी हाजिरजवाबी और बेबाकी से रूबरू होने का मेरा पहला निजी अनुभव था, जिसके बारे में अब तक सिर्फ सुना-पढ़ा ही था.
उन्होंने खस का शर्बत मँगा लिया और इसकी मिठास और उनकी चटपटी बातों ने उस पूरी मुलाकात को बेहद यादगार बना दिया.
मैंने उनसे उनके सपनों, डर, अधूरी इच्छाओं, सेक्सुअल फेंटेसीज वगैरह के बारे में बहुत सारी बातें की और उन्होंने बहुत खुलेपन से इनके जवाब दिए. उनके इस इंटरव्यू को मैं अपने किए बेहतरीन इंटरव्यूज में से एक मानता हूँ.
उन्होंने बताया था कि वे सबसे बड़े लेखक बनना चाहते थे, लेकिन सबसे बड़े तो नहीं, पर सबसे ज्यादा कमाने वाले लेखक जरूर बने.
इंटरव्यू खत्म होने के बाद मैंने उनसे एक अच्छा राइटर बनने के लिए कुछ मार्गदर्शन करने के लिए कहा. उन्होंने कहा कि आप धार्मिक पुस्तकें बहुत पढ़िए, जितनी ज्यादा से ज्यादा रिलीजियस बुक पढ़ सकते हैं, पढ़िए. हालाँकि आप सोच रहे होंगे कि मैं नास्तिक होते हुए भी आपको धर्म की किताबें पढ़ने के लिए क्यों कह रहा हूँ, लेकिन इनसे आपके रिफ्रेंस बहुत मिलते हैं, जो आपके लेखन को दिलचस्प बनाते हैं.
उनका दूसरा सुझाव था कि लोगों को पढ़ना सीखिए क्योंकि हर आदमी खुद में एक भरी-पूरी किताब होता है. अगर आप यह आदत डाल लेंगे तो सारी जिंदगी सभी से कुछ न कुछ सीखते रह सकते हैं. उनकी यह बात सुनकर मुझे उनके वीकली कॉलम न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर की याद आ गई, जिसमें वे बड़े-बड़े लोगों के साथ अपने निजी अनुभव साझा किया करते थे.
उनके क्रांतिकारी विचारों और बेबाक टिप्पणियों से वे आए दिन विवादों से घिरे रहते थे. पुरस्कार लौटाने का चलन जो हमें आज देखने को मिल रहा है, उसकी शुरुआत खुशवंत सिंह जी 1984 में ही कर चुके थे, जब उन्होंने दस साल पहले मिले अपने पद्मभूषण सम्मान को ऑपरेशन ब्लू स्टार के विरोध में लौटा दिया था. हालांकि 2007 में भी उन्हें पद्मविभूषण सम्मान मिला, जो भारत रत्न के बाद दूसरा सबसे बड़ा सिविल अवार्ड है.
मृत्यु से भय का अनुभव न करने वाले खुशवंत सिंह इसे एक उत्सव के रूप में देखते थे. उन्होंने तीस साल की उम्र में ही अपनी श्रद्धांजलि लिखकर रख ली थी. आज खुशवंत सिंह जी की सातवीं पुण्यतिथि है. इस मौके पर उनका पुण्यस्मरण और भावभीनी श्रद्धांजलि. उनके जैसी शख्सियत और जिंदगी बहुत लोगों को हासिल होती है.



Monday, March 15, 2021

बातें—मुलाकातें : 50 (कार्टूनिस्ट काक)

ऐसे समय में जब उनके दौर के कार्टूनिस्टों की लगभग पूरी पीढ़ी शांत या निष्क्रिय है, काक जी ने न अपनी ऊर्जा को कभी क्षीण नहीं होने दिया है और न ही अपने कार्टूनों की धार को. आज अस्सी साल की उम्र में भी वे नियमित रूप से कार्टून बनाते हैं और उतनी ही ​निष्ठा से जीवन की विसंगतियों पर टिप्पणी करते हुए समाज और लोगों के प्रति अपना दायित्व निभा रहे हैं. 





पत्रकारिता के अपने दो दशक के कैरियर में एक से एक बेहतरीन हस्ती से मिलने का मौका मिला है मुझे, लेकिन यहाँ जिस हस्ती की बात मैं करने जा रहा हूँ, उनसे मेरे पत्रकारिता में कदम रखने से काफी पहले परिचय हुआ था. हुआ ये था कि दिल्ली से प्रकाशित संडे ऑब्जर्वर ने ‘ वह किताब, वह किरदार’ नाम से एक ऐसा स्तंभ शुरू किया था, जिसमें पाठक अपनी पढ़ी किसी भी किताब से एक पसंदीदा किरदार चुनकर उसके बारे में अपनी राय लिखकर भेज सकते थे. लेखन के शौक, और अलग तरह की चीजें सोचने के शगल ने मुझे इस स्तंभ में हिस्सा लेने के लिए प्रेरित किया. 

अब सवाल था कि ऐसे किसी किरदार का चयन, जो जरा हटकर हो...बहुत सारे किरदार दिमाग में आए, भारती जी के चंदर और माणिक मुल्ला से लेकर भगवती बाबू की चित्रलेखा तक, इंद्रजाल कॉमिक्स के बेताल से लेकर सर डायल के शरलक होम्स तक...लेकिन, फिर ख्याल आया कि किताबी किरदारों पर तो सभी लिख रहे हैं, क्यों न किसी ऐसे किरदार के बारे में लिखा जाए, जो किताबों से इतर दुनिया से ताल्लुक रखता हो...और इस हर दिल अजीज बुड्ढे पर नजर पड़ गई. 

नवभारत टाइम्स में छपने वाले कार्टूनिस्ट काक के इस किरदार के कद्रदानों में मेरे जैसे बहुत सारे दोस्त शामिल थे, और इन पर रोजाना ऐसे ही चर्चा करते थे, जैसे कि आजकल अपनी फेवरेट फिल्मों या वेबसीरीज की होती है. तो पिछले कुछ महीनों के पसंदीदा कार्टूनों को याद किया और इस गुदगुदाते किरदार पर एक लेख लिख डाला...अब ख्याल आया कि काश इसमें काक जी का बनाया कार्टून और उनकी इस किरदार के बारे में राय भी शामिल हो जाए तो मजा आ जाए...किशोरावस्था का उत्साह और उच्छृंखलता, उस समय किसी भी बडी से बडी हस्ती से अपनी बात कहने में हिचक महसूस नहीं होने देती थी तो उठाया एक पेपर और काक जी को अपने लिखे लेख की फोटोकॉपी के साथ उनसे एक कार्टून बनाकर देने का और ऐसी कुछ जानकारियां देने का अनुरोध किया, जो उनके ख्याल से मुझसे छूट गई हो सकती थीं...कुछ ही दिनों में जवाब आ गया, जो काक की चिरपरिचत कार्टूनिया अंदाज में ही था. कार्टून भी भेजा और मेरे सवालों का जवाब भी- जिसमें उनके मुख्य किरदार बुढ़ऊ को कहते हुए दिखाया गया था कि 'यार जितना जानते हो मेरे बारे में, उतना तो मुझे भी नहीं मालूम...'

यह कार्टून आज सालों बाद भी मेरे पास महफूज है. कुछ साल हुए, फेसबुक पर काक जी का प्रोफाइल देखा तो इस पत्र व्यवहार और बाद में दिल्ली में रहते हुए काक जी से नवभारत टाइम्स में हुई अनेक आत्मीय मुलाकातों की यादें ताजा हो आईं. 

मैं जब भी नवभारत टाइम्स में जाता, उनसे जरूर मिलता था. और वे स्नेह से बिठलाकर न सिर्फ बातें करते थे, बल्कि चाय भी पिलाया करते थे. पिछले साल काक जी से एक बार फिर इस किरदार के जन्म और विकास यात्रा के विषय में जानने की कोशिश की. इस उम्मीद में कि शायद इस बार कुछ नई जानकारी हासिल हो जाए और अच्छी बात यह रही कि इस बार उन्होंने इसके बारे में मुझे दिल खोलकर बताया. 

अगर इसका जन्मदिन तलाशा जाए तो कौन सी तारीख ज्यादा प्रमाणित लगेगी? मैंने पूछा.

''कुछ भी मान लीजिये. 18 - 09 - 1974, 'आज' कानपुर में. तब स्व. विनोद शुक्ल स्थानीय सम्पादक थे. वनारस से उसकी फक्कड़ी वेशभूषा को लेकर बड़ी आपत्ति आई. तब स्व. सत्येन्द्र कुमार गुप्त प्रधान सम्पादक थे. वह नहीं चाहते थे कि विपन्न कैरेक्टर अखबार के मुखपृष्ठ पर आए. मैं अड़ गया कि यह नहीं तो मैं भी नहीं.खैर, विनोद जी ने मामला सँभाला. 

बुढ़ऊ और उनकी दुनिया ने अथाह प्यार दिलाया लगभग पूरे देश से. बाकी चीजें मेरे लिये गौण हो गईं. मैं खुद भी. वह नहीं तो मैं नहीं. रखो अपना अपने पास. बुढ़ऊ को कुछ नहीं चाहिए. किसी से भी. 

आज, जागरण, दिनमान, राजस्थान पत्रिका जैसे प्रतिष्ठित पत्रों में नियमित स्तंभ के रूप में प्रकाशित होते हुए यह अज्ञेय जी के  संपादन काल में, उन की प्रेरणा से नवभारत टाइम्स में आना शुरू हुआ. बाद में जनसत्ता, फिर से नवभारत टाइम्स में न केवल खुद बल्कि भौजी, जमादारिन, मौलाना वगैरह के साथ अपनी दुनिया बसा ली.'' काक जी ने बताया.

कभी भी दो श्रेष्ठ रचनाओं की तुलना नहीं करनी चाहिए, लेकिन निजी तौर पर मुझे ऐसा लगता है कि काक का आम आदमी किसी भी दृष्टि से लक्ष्मण के कॉमन मैन से कम नहीं है. बल्कि आम आदमी के दर्द और सामाजिक विसंगतियों का मूक दर्शक न बने रहकर, निर्भीकता से उस पर अपनी मुखर टिप्पणी देने की वजह से जनता के ज्यादा बड़े वर्ग की आवाज को अभिव्यक्ति देता है. उनका बुड्ढा , कॉमन मैन की तरह इलीट मिडिल क्लास का नहीं, बल्कि भदेस हिंदुस्तानी का प्रतीक है, जो तकलीफ होने पर कराह सकता है, नाराज होने पर गुस्सा जाहिर कर सकता है, दुखी होने पर रो सकता है. संक्षेप में कहें तो इन दोनों में वही फर्क है, जो इंडिया और भारत में है.

आज भारतीय कार्टूनों की समृद्ध परंपरा के वाहक हरीश चंद्र शुक्ल यानी काक, 81 साल के हो गए हैं. बधाई के साथ हम कामना करते हैं कि वे हमेशा स्वस्थ रहें, सक्रिय रहें और उनकी ऊर्जा व धार सतत् बनी रहे.




बातें-मुलाकातेंः 49 (सलमा सुल्तान)

मैंने जिन सेलिब्रिटीज के इंटरव्यू किए हैं, उनमें सबसे ज्यादा कॉमन इनिशिअल्स एसएस थे. शत्रुघ्न सिन्हा, सुषमा स्वराज, शिखा स्वरूप, सुष्मिता सेन... और सलमा सुल्तान.



उन दिनों रेडियो समाचारों की दुनिया में देवकी नंदन पांडे जी के जलवे थे तो टीवी समाचारों की दुनिया में सलमा सुल्तान की सल्तनत (1967 से 1997 तक) कायम थी. यह वह दौर था, जब न्यूज एंकर नहीं, बल्कि न्यूजरीडर पेश करते थे और सारा दारामेदार आपकी आवाज और चेहरे के भावों को नियंत्रित रखने पर टिका होता था.
कैसा भी समाचार हो, सलमा जी की आवाज में तो काफी गंभीरता थी ही, उन्हें हर प्रकार के समाचारों के साथ अपने आप को अविचलित और तटस्थ बनाए रखने में महारत हासिल थी. शायद इसी महारत ने उनकी शब्दों के बीच अक्षरों को खा जाने की कमजोरी के बावजूद उन्हें सितारा न्यूज रीडर बनाए रखा.
उनका इंटरव्यू करने की इच्छा हुई तो नभाटा से अप्रूवल लेकर उन्हें कॉल लगा दिया. उन्होंने अगले दिन सुबह का समय दे दिया. वे दिल्ली के शाहजहाँ रोड या उसके आसपास कहीं रहती थीं.
तयशुदा वक्त पर जब मैं वहाँ पहुँचा तो पता चला कि मैडम अभी तैयार हो रही हैं. करीब पौन घंटा इंतजार करने के बाद जब उनका आगमन हुआ तो मुझे देखते ही उनका पहला सवाल था कि आप अकेले आए हैं? मैं इसका मतलब नहीं समझ पाया तो उन्होंने स्पष्ट किया कि वे यह सोच रही थीं कि मेरे साथ फोटोग्राफर भी आने वाला है इसलिए तैयार होने में इतना समय लगाया.
बहरहाल, इंटरव्यू शुरू हुआ. विषय पर विषय से हटकर बहुत सी बातें भी हुईं. इस बीच एक बात जो मैंने नोटिस की, वह यह थी कि उम्र के जिक्र पर वे बहुत सजग हो जाती थीं. जैसे कि एक सवाल के जवाब में उन्होंने जब हम जवान थे बोल दिया तो तुरंत ही उसे सुधार कर जब हम टीन एज में था कर दिया.
कुल मिलाकर इंटरव्यू उनके व्यक्तित्व जैसा ही गंभीर और काफी मोटिवेट करने वाला था. आप भी पढ़िए और आज उनके .... वें जन्मदिन पर हमारे साथ उनके स्वस्थ व सक्रिय जीवन के लिए शुभकामनाएं दीजिए.

interview


बातें-मुलाकातें: 48 (किरण कार्णिक)

जिन हस्तियों के मैंने इंटरव्यू लिए हैं, संयोगवश उनमें से तीन का जन्मदिन आज ही पड़ता है. ये हैं किरण कार्णिक, सलमा सुल्तान और वरिष्ठ कार्टूनिस्ट काक. सदैव स्वस्थ, सक्रिय और ऊर्जावान बने रहें, इन्हीं शुभकामनाओं के साथ आप सभी को जन्मदिन की हार्दिक बधाई...


सबसे पहले बात करते हैं किरण कार्णिक की. उनकी प्रोफेशनल लाइफ इतनी व्यापक है कि उस पर पूरी एक किताब लिखी जा सकती है. संक्षेप में कहा जाए तो वे 1969 में इसरो की स्थापना के कुछ समय बाद ही उससे जुड़ गए थे. 1983 से 1991 के दौरान करीब आठ साल तक इसरो की डेवलपमेंट एंड एजुकेशनल कम्युनिकेशन यूनिट के डायरेक्टर रहे और 1991 में इसरो छोड़कर, यूजीसी द्वारा गठित कन्सोर्टियम फॉर एजुकेशनल कम्युनिकेशन के पहले डायरेक्टर बने. इसके अलावा वे नासकॉम के प्रेसिडेंट और सत्यम कम्प्यूटर सर्विसेज के चेयरमैन भी रहे. आज अपना वह 74 वां जन्मदिन मना रहे किरण कार्णिक, वर्तमान में वह प्रधानमंत्री की साइंटिफिक एडवाइजरी काउंसिल और नेशनल इनोवेशन काउंसिल के सदस्य होने के साथ-साथ कॉन्फेडेरशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री में टेलीकॉम एंड ब्रॉडबैंड की नेशनल कमेटी के चेयरमैन और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के सेंट्रल बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में डायरेक्टर हैं. इसके अलावा वे हेल्पएज इंडिया की गवर्निंग बॉडी के चेयरमैन भी हैं. 

जिस समय मेरी उनसे मुलाकात हुई थी, वह डिस्कवरी चैनल के मैनेजिंग डायरेक्टर थे. यह मुलाकात पूरी तरह व्यावसायिक थी, जिसमें व्यक्तिगत अनुभूति जैसा कुछ नहीं था. एक पीआर एजेंसी ने उनका इंटरव्यू कराने के लिए नवभारत टाइम्स में तत्कालीन फीचर विभाग के हेड विनोद भारद्वाज जी से सम्पर्क किया था और उन्होंने यह जिम्मा मुझे सौंपा. 

डिस्कवरी के दिल्ली ऑफिस में यह इंटरव्यू सम्पन्न हुआ. पूरे इंटरव्यू के दौरान वे किसी भी प्रकार की ईगो या एटिट्यूड से मुक्त नजर आए और बेहद सहज रहते हुए शांति से मेरे प्रश्नों के उत्तर देते रहे. मैं संकोच की वजह से बस उनसे एक ही सवाल नहीं पूछ पाया कि आप अपने नाम को हिंदी में किरण लिखते हैं या किरन. इस बारे में जब मैंने उस पीआर एजेंसी से पूछा तो उसने यह कहते हुए पल्ला झाड़ लिया कि ये तो आपको पता होना चाहिए. बहरहाल, हमने किरण का इस्तेमाल किया और आज भी वही कर रहा हूँ. अगर गलत तो कार्णिक जी क्षमा करें.

यह इंटरव्यू मेरे लिए भी काफी कुछ सीखने वाला था. आप भी पढ़िए, शायद आपको भी कुछ अच्छी जानकारियाँ मिलें.


Sunday, March 14, 2021

बातें-मुलाकातेंः 47(इला अरुण)

आप इला अरुण को बहुत सारी चीजों के लिए याद कर सकते हैं. मोरनी बागा में बोले (लम्हे), चोली के पीछे क्या है (खलनायक) जैसे गीतों के लिए भी, कई रीयलिटी म्यूजिक शो की जज के रूप में भी और जोधा अकबर में अकबर की धाय माँ जैसी ऑनस्क्रीन भूमिकाओं के लिए भी. 



इला अरुण से मेरी मुलाकात उस समय हुई थी, जब देश में पॉप और पॉप में फॉक म्युजिक अपने सबसे बेहतरीन दौर में था और इला इस दौर के स्टार परफॉमर्स में शुमार थीं. उनका एलबम वोट फॉर घाघरा दिल्ली में रिलीज किया जाना था, जिसका टाइटिल सॉन्ग ही ‘अरे दिल्ली शहर मा मारो घाघरा चे घुम्यो... पहले सही धूम मचा रहा था. 

रिलीज वाले दिन इला सुबह-सुबह ही दिल्ली आ चुकी थीं और एक पाँच सितारा होटल में ठहरी हुई थीं. मैंने उन्हें फोन किया और उन्होंने बिना कोई नखरा दिखाए मुझे बातचीत के लिए बुला लिया. 

मैंने जितनी भी हस्तियों से बात या मुलाकात की है, सबका कम से कम नब्बे प्रतिशत मुझे याद रहा है. लेकिन आश्चर्यजनक रूप से इला से हुई इस पूरी मुलाकात का नब्बे फीसदी हिस्सा मेरी यादों से मिट चुका है. सिर्फ इतना याद है कि जब मैं होटल के रूम में था तो वे हवा के झोंके सी लहराती हुई वहाँ अवतरित हुई थीं, जैसे कि वे इंटरव्यू देने नहीं, बल्कि स्टेज पर परफॉर्म करने वहाँ पहुँची हों. 

आज इला का 67 वें जन्मदिन के मौके पर उन्हें हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं. 

इंटरव्यू हाजिर है, आप भी आनंद लीजिए.


Thursday, March 4, 2021

बातें—मुलाकातें : 46 ( रंगकर्मी रामगोपाल बजाज)

केंद्र में भाजपा की पहली सरकार बनी थी. दो हफ्ते में विश्वासमत पेश होना था. मन में ख्याल आया कि मुझे कैरियर की पहली जॉब देने वाले हमारे अखबार हिमालय दर्पण के लिए इस बारे में बुद्धिजीवियों और कला—संस्कृति से जुड़े लोगों के विचार जाने जाएं. तो तय हुआ कि अगले पंद्रह दिनों तक रोज एक व्यक्ति से उसकी राय ली जाएगी. इस सिलसिले में ज्यादा कुछ नहीं करना था, सिर्फ इन लोगों को फोन लगाकर दो—चार सवाल पूछने थे. उमा शर्मा, ​पं.बिरजू महाराज, मौलाना वहीदुद्दीन खान और बहुत सारी ऐसी हस्तियां जिनके इंटरव्यू मैं पहले कर चुका था, इस नियमित परिचर्चा का हिस्सा बने. लेकिन, दो लोगों के साथ मेरे अनुभव कुछ अलग तरह के रहे. एक तो थीं, प्रसिद्ध लेखिका पद्मा सचदेव और दूसरे नेशनल स्कूल आॅफ ड्रामा को तत्कालीन निदेशक राम गोपाल बजाज. पद्मा जी की बात बाद में करेंगे, आज पद्मश्री बजाज साहब का जन्मदिन है, इसलिए उन्हीं की बात करते हैं.



बजाज साहब को थिएटर जगत एक अकेमेडिशयन और रंगमंच के नामचीन निदेशक के रूप में जानता है, लेकिन उन्होंने चाँदनी, मिर्चमसाला, मंगल पांडे, जॉली एलएलबी 2, ​मणिकर्णिका जैसी डेढ़ दर्जन से ज्यादा फिल्मों में भी अभिनय किया है. उनके इस पहलू से अलग भी एक पहलू है, एक विजनरी थिंकर का, जिसका परिचय मुझे उनसे साक्षात्कार के दौरान मिला.
जब मैंने बजाज साहब को फोन लगाकर उन्हें अपना अभिप्राय समझाया और कहा कि क्या वे इस बारे में अपने विचार देना चाहेंगे तो उन्होंने सहर्ष स्वीकृति दे दी और अगले दिन सुबह फोन करने के लिए कहा. मैंने पूछा कि कौन सा समय उनके लिए उपयुक्त होगा, तो वे बोले कि सुबह छह बजे कर लीजिएगा. मैं चौंका और फिर से पूछा. उन्होंने कहा कि मैं सुबह पाँच बजे उठ जाता हूँ और सुबह—सुबह मूड एकदम फ्रेश रहता है. इसलिए विचार भी अच्छे आएंगे. मैं खुद अर्ली टू बेड, अर्ली टू राइज में यकीन रखता था और सुबह पाँच बजे उठ जाया करता था. तो इंटरव्यू करने में कोई दिक्कत नहीं हुई.
इंटरव्यू में उन्होंने काफी विचारोत्तेजक बातें कहीं, उनके जवाब बहुत ही संतुलित और सुलझे हुए थे. इस इंटरव्यू को पढ़कर आप भी जान सकते हैं कि कैसे कुछ चीजें हमेशा प्रासंगिक बनी रह सकती हैं. लेकिन, पहले बजाज साहब के जन्मदिन पर उनका
अभिनंदन
. वे दीर्घ स्वस्थ व सक्रिय जीवन जियें, इसी कामना के साथ उन्हें जन्मदिन की हार्दिक
बधाई
व शुभकामनाएं.

interview