Sunday, March 3, 2013

इमेज के सहारे ब्रांड की बिक्री


वर्षों से तरह-तरह के उत्पादों को बेचने के लिए कंपनियों द्वारा मशहूर हस्तियों का सहारा लिया जाता रहा है. ये हस्तियां ज्यादातर फिल्म, खेल (खासकर क्रिकेट) जैसे आम रुचि के क्षेत्रों से ताल्लुक रखने वाली होती हैं. ऐसी हस्तियां, जिनके बारे में यह माना जाता है कि वे अपने कद्रदानों के कंज्यूमर बिहेवियर को मोटिवेट, इन्फ्ल्युएंस या चेंज करने में सक्षम हैं. लक्स, इस मानसिकता का एक सबसे बड़ा कामयाब उदाहरण है, जिसने करीब सात दशकों से फिल्मी सितारों का सौंदर्य साबुन होने की दावेदारी को बनाए रखा है. ऐसे बहुत से उत्पाद हैं, जिनके मॉडल सेलिब्रिटीज हैं. और बावजूद लोगों की इस चिरशंका के, कि वे खुद शायद ही कभी उन उत्पादों को इस्तेमाल करते हों जिनका कि वे प्रचार करते हैं, वे लोगों को बहलाने में लगभग कामयाब ही रहे हैं. 

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लेकिन, पिछले दो-तीन दशकों में यह परिदृश्य काफी बदल चुका है. विकल्पों और ओवरएक्सपोजर के इस दौर में सेलिब्रिटीज का अनुसरण करने करने की आम प्रवृत्ति घट रही है. अब हर शख्स अपने उठाए हर कदम का फैसला खुद करना चाहता है, सुझाए नुस्खों को आजमाने की बजाए खुद नए प्रयोग करना चाहता है. जरूरी नहीं कि वह वही साबुन या शैंपू इस्तेमाल करे, जो उसका प्रिय खिलाड़ी या फिल्मी सितारा करता है. ऐसे में विज्ञापन की दुनिया ने एक नया पैंतरा आजमाना शुरू किया है, सेलिब्रिटीज की सितारा हैसियत की बजाए उनकी पॉपुलर इमेज को कैश करने का. 

इसमें सबसे आगे हैं, नवाब सैफ अली खान पटौदी जिनकी प्लेब्वाय की पॉपुलर इमेज को उनके किए अस्सी फीसदी विज्ञापनों में कैश होते देखा जा सकता है. करीना से उनके रोमांस के दो-तीन सालों में न सिर्फ उनकी इस छवि, बल्कि इस ओवरहाइप्ड रिश्ते का भी भरपूर दोहन किया गया है. इसी तरह अक्षय कुमार अपनी एक्शन किंग की फिल्मी इमेज का फायदा विज्ञापनों में भी उठाते नजर आते हैं. कहीं वे एक कोल्डड्रिंक के लिए पहाड़ से छलांग लगाते हैं तो कहीं एक साथ दस-दस शोहदों के छक्के छुड़ाते हैं. इसी प्रकार का दोहन हम खान त्रयी के अधिकतर विज्ञापनों को देख सकते हैं. सलमान खान के विज्ञापनों में वे अपनी ऑनस्क्रीन छिछोरेपन और चुलबुलेपन की मिली-जुली छवि के साथ उपभोक्ताओं को रिझाते देखे जा सकते हैं, तो शाहरुख का रीयल लाइफ का,गलती से आत्मविश्वास समझ लिए जाने वाले अहंकार को प्रदर्शित करता चेहरा विज्ञापनों में भी उसी अकड़ के साथ नजर आता है. इन दोनों के विपरीत तीसरे खान यानि आमिर की रीयल लाइफ की सहजता वाली छवि विज्ञापनों में भी उपभोक्ताओं से उसी सहजता से पेश आती नजर आती है और मि. परपेक्शनिस्ट का टैग वे विज्ञापनों में भी उसी नफासत के साथ कैरी करते हैं. रणवीर की अलमस्त सम्पन्नता, हृतिक रोशन की अतिआत्मविश्वास से भरपूर अभिजात्यता, जूही का चुलबुलापन, करीना कपूर का नकचढ़ापन, कैटरिना का एलियन लुक और लैंग्वेज,  दर्शकों को उबासियां लेने को को मजबूर करता अभिषेक बच्चन का बुजुर्गाना शैथिल्य...ऐसी अनेक छवियां हैं, जो विज्ञापन की दुनिया में बड़ी चालाकी से कैश की जा रही हैं. फिल्मी हस्तियों की छवियों को भुनाना अपेक्षाकृत आसान होता है, क्योंकि ये पहले ही दर्शकों/उपभोक्ताओं के दिमाग में स्थापित हो चुकी होती हैं. लेकिन, नॉन फिल्म सेलिब्रिटीज के मामले में यह थोड़ा जोखिम भरा हो सकता है....और कुछ मामलों में शायद मूर्खता भरा भी.

विख्यात तबलावादक जाकिर हुसैन को संगत देती चाय ताज का विज्ञापन सालों तक सफलतापूर्वक चला, जिसमें वे अपनी सफलता का श्रेय ताज को देते नजर आते थे और वाह उस्ताद की जगह कद्रदानों से, विनम्रतापूर्वक वाह ताज बोलने का इसरार करते थे. लेकिन, एक बार चूक हो गई. उस्ताद की उस्तादी कुछ ज्यादा ही हो गई और ताज से बेहतर चाय लाकर दिखाने  पर तबला बजाना छोड़ देने के ऐलान से शुरू हुए प्रचार गिमिक ने न जाने कैसे पहले अफवाह और फिर खबर की शक्ल ले ली और इसे लेकर कलाजगत में उस्ताद को काफी भर्त्सना झेलनी पड़ी. इस तरह पूरा कैंपेन बाउंस बैक कर गया और फिर बाद में ताज के विज्ञापनों में तबले की थाप सुनाई  ही देनी बंद हो गई. 

लेकिन, ऐसा कभी-कभी ही होता है. वर्ना ऐसे प्रयोगों का अधिकतम जोखिम इतना ही होता है कि ये बेअसर रहें और विज्ञापन अथवा उत्पाद को अपेक्षित सफलता न दिला पाएं. शाकाहार को प्रमोट करते एक विज्ञापन अभियान में टी.एन.शेषन सरीखे आक्रामक नौकरशाह का हाथ में गाजर लेकर राजनेताओं को कच्चा चबाने का दावा करना, चेहरे के दाग-धब्बे मिटाने वाली एक क्रीम के विज्ञापन में बेदाग छवि वाली पहली महिला आईपीएस किरण बेदी, पेन के विज्ञापन में राइटिंग और फाइटिंग का घालमेल करते शायद जावेद अख्तर ऐसे ही कुछ बेअसर प्रयोगों का उदाहरण हैं. 

सच तो यह है कि छवियों का इस्तेमाल बहुत संवेदनशीलता और सतर्कता की मांग करता है. वर्ना कई बार ये इतनी शक्तिशाली हो जाती हैं कि उत्पाद और विज्ञापन, दोनों उनके आगे बौने हो जाते हैं. जैसा कि बीते साल एक पंखे के विज्ञापन में हुआ, जिसमें गुजरे जमाने के सुपरस्टार राजेश खन्ना, आनंद शैली में मुझसे मेरे फैन कोई नहीं छीन सकता बाबू मोशाय! कहते नजर आए. विज्ञापन का संदेश और ब्रांड, दोनांे उनके नोस्टेल्जिक मैनेरिज्म की छाया में छिप गए और इस एक्स सुपरस्टार का पहली बार किसी विज्ञापन में आना, विज्ञापन से ज्यादा चर्चित हो गया. 

ऐसा कभी भी हो सकता है, क्योंकि छवियां तो छवियां हैं, जो वक्त के हिसाब से अपना आकार बदलती रहती हैं और रंगरूप भी. इनकी सवारी वही कर पाता है, जो इनकी इस फितरत के रोम-रोम से वाकिफ हो. वर्ना तो छवियां कब अपने सवार को मैदाने जंग में पटखनी खिला दें, कोई नहीं बता सकता.