Tuesday, January 3, 2012

झूठ बोलूं तो मुझे कौआ काटे...

अक्सर आपने अपने बचपन में मजमा लगाकर अपना सामान बेचने वालों को अपने माल की गुणवत्ता के बारे में बड़े अजीबोगरीब दावे करते सुना होगा कि अगर माल उनके बताए अनुसार न निकला तो वे अपने बाप की औलाद नहीं हैं, या आप उन्हें जिस थाली में कुत्ता खाता है, उसमें खिला सकते हैं और न जाने क्या-क्या...कई तो शालीनता की सीमाओं में नहीं आने के कारण यहां जिक्र के भी काबिल नहीं हैं.
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मार्केटिंग का यह फंडा, फूहड़ तो लग सकता है, लेकिन है बहुत प्रभावी. भोले-भाले हिंदुस्तानी मानस को यह बात बहुत आसानी से समझ में आ जाती है कि कोई यूं ही अपने आपको गाली नहीं देता है. पिछले कुछ सालों में इस फंडे को विज्ञापनों की दुनिया ने बड़ी रचानत्मकता के साथ अपनाया है, वह भी शालीनता को बनाए रखते हुए. वे अपने आप को गाली न देते हुए देखने वालों को खुद पर क करने की सहूलियत देते हैं लेकिन इस चालाकी से कि देखने वाला उन पर क करते-करते यकीन करने लग जाए.

वर्षों पहले एक अगरबत्ती के विज्ञापनों में नायक कुछ बूढ़ों के बीच आकर पचास लीटर दूध देने वाली छह पैरों वाली गाय, नौ फुट लंबे उसके भाई जो हवा में उड़ सकता है के बारे में बताता है तो वे उसकी मजाक उड़ाते हैं, फिर वह घंटों तक जलने वाली अगरबत्ती के बारे में बताता है तो भी उपहास का पात्र बनता है, चिढ़कर वह धन्नो नाम की इस गाय और अपने भाई को आवाज लगाता है, तो बूढ़े उसकी बात मानने के लिए मजबूर हो जाते हैं.

इसी तरह एक कार के विज्ञापन में नायक अदृश्य ग्राहकों की झूठी तारीफ करता है तो उसे बाक्सिंग ग्लोव्स से घूंसे पड़ते हैं, लेकिन जब वह कार की खूबियों के बारे में बताता है और घूंसे के इंतजार में दांए-बांए देखता है और घूंसा नहीं पड़ता तो उसे यकीन आता है कि उसने जो कहा है वह सच है. इसी क्रम में एक फोन सेवा के विज्ञापन में एक तोता चार रुपए में बहुत सारी सर्विसेज मिलने की बात सुनकर वह चिढ़कर कहता है कि अगर यह सच है तो यह भी सच है कि वह दीपिका पादुकोण का ब्वायफ्रेंड है, सलमान उसका बाडी ट्रेनर है और वह काफी पीने के लिए बर्मिंघम पैलेस जाता है.

इन दिनों एक और विज्ञापन आ रहा है जिसमें कार खरीदने आया एक ग्राहक कार के साथ मिलने वाले फायदों की पुष्टि करने के लिए कभी लड़की तो कभी गोरिल्ले का वे धारणकर सेल्समैन के पास आता है. इसी तरह एक बर्गर के एड में पात्र कहता है की अगर इतना  बड़ा बर्गर ४० रुपये में मिल सकता है तो मैं मि. इण्डिया हूँ, और अगले ही पल वो अदृश्य हो जाता है...इस तरह के ऐसे और भी कई विज्ञापन हैं, जो आपको अपने उत्पाद के बारे में बताने के लिए हाथ घुमाकर कान पकड़ने वाल फार्मूला अपनाते हैं.आपके मन में सवाल उठ सकता है कि जब सीधे तरीके से उत्पाद की खूबियों और खासियतों को विज्ञापित करने से काम चल सकता है, तो लोगों की नकारात्मक भावनाओं को छेड़ने की क्या जरूरत है.

दरअसल, यह फंडा उस सिद्धांत पर आधारित है जो ‘दो और दो चार’ जैसे सीधे-सपाट वक्तव्य या ‘दो और दो पांच’ जैसे बड़बोलेपन की बजाए ‘छह माइनस एक बराबर पांच’ के चतुराईपूर्ण और दिलचस्पी जगाने वाले वक्तव्य पर जोर देता है. यह नकारात्मक चीजों के प्रति मनुष्य के स्वाभाविक आकर्षण से भी जुड़ा है. इसलिए अगर एक डिटर्जेंट पाउडर का विज्ञापन आपको उसे खरीदने का आदे देने की बजाए आपको ‘पहले इस्तेमाल करें, फिर विश्वास करें’ की सलाह देता है तो ताज्जुब न करें. आखिर बिना सोचे-समझे किसी भी चीज की खरीदारी में ही समझदारी कैसे हो सकती है.

-संदीप अग्रवाल