Monday, October 1, 2012

मेगा से माइक्रो की ओर



नैनो यानी सूक्ष्म टेक्नोलॉजी का दौर है. सब कुछ सिकुड़ रहा है. घर, परिवार, कारें...दिल के भीतर की जगह. विज्ञापन भी इसके असर से अछूते नहीं रहे हैं. अलबत्ता, दिलचस्प रूप से ये अपनी संक्षिप्तता के बावजूद विशालता से ज्यादा असरदार साबित हो रहे हैं. वर्षों पहले टीवी पर आ रहा एक डिटरजेंट का विज्ञापन, जिसकी पंचलाइन थी- इट रिमूव्स स्टेंस, विच यू कैन सी एंड जर्म्स, विच यू कांट’. वो बिल क्लिंटन और मोनिका लेविंस्की स्केंडल का जमाना था, तो विज्ञापन को चर्चित होने के लिए एक अतिरिक्त वजह मिल गई थी. 


 बहरहाल, आज माइक्रोटेक्नोलॉजी ने सब कुछ उलटपुलट कर दिया है. स्टेंस तो सभी क्लिनिंग एजेंट मिटा देते हैं. काबिलियत तो जर्म्स से मुकाबले में है. स्टेंस का दिखाई देना या न देना इतना मायने नहीं रखता है, जितना कि जर्म्स का रखता है. वो जमाना गया, जब आप सिर्फ स्टेंस को ही देख पाते थे और जर्म्स को नहीं. वीडियो प्रोडक्शन की दुनिया में वीएचएस से हाई डेफिनेशन के सफर में अब जम्र्स को देख पाना भी मुमकिन है. और वे सिर्फ दिखाई ही नहीं देते, बल्कि स्टेंस से कई गुना ज्यादा बड़े आकार में दिखाई देते हैं. कभी वे हमारे दांतों के बीच की जगह से निकलकर मुंह से बाहर आकर टेबल पर खड़े होकर हमें डराते नजर जाते हैं, कभी एक खुद डरकर कपड़ों से निकलकर भागते नजर आते हैं. बर्तनों में हो तो वे सब्जी से बड़े दिखाई देते हैं, टायलेट में हों तो कमोड से बड़े...और कई बार वे हवा में तैरते हुए आपकी सांसों में घुस जाते हैं ताकि आप उस उत्पाद को खरीदने के लिए मजबूर हो जाएं, जिसे बेचने के लिए वे एक्सटोर्शन वाली मुद्रा अपना रहे हैं कि ‘किल अस, बिफोर वी किल यू...’ इनका आकार और रंगरूप, दहशत से ज्यादा वितृष्णा उत्पन्न करता है. अजीबोगरीब आकारों और मुखमुद्राओं वाले इन जीवाणुओं का अट्टाहस और चीखपुकार, दोनों ही असह्य हो जाती हैं. यही इनकी प्रभावोत्पादकता है कि जब आप इन्हें देखना बर्दाश्त नहीं कर पाते तो अपने शरीर, कपड़ों अथवा घर में इनकी मौजूदगी कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं. 

इसने कल्पनाशीलता को पनपने के अपार अवसर भी दिए हैं. अब हम दर्द जैसी चीज को अपने कंधे पर सवार होकर हमारे बाल नोंचते या हमारी पीठ पर मुक्के बरसाते देख सकते हैं. अपने भीतर के शैतान संवाद कर सकते हैं और अनेक चीजों के एटम्स कंबीनेशन को देखकर उन पर भरोसा करते हुए उन्हें आजमाने को जोखिम उठा सकते हैं. 

मेगा से माइक्रो की यह यात्रा सिर्फ स्टेंस और जर्म्स की ही नहीं है, बल्कि विज्ञापनों में दिखने वाली छवियों और उनमें व्यक्त भावनाओं की भी है. पहले के दौर में जहाँ विज्ञापनों का मतलब उत्पाद हाथ में लेकर एक कृत्रिम मुस्कान के साथ दर्शकों को उसे खरीदने की सलाह देना भर होता था, वहीं आज इनमें क्लोजअप की जगह लॉन्ग शॉट्स ने ले ली है, जिनमें फन है, एक्शन है और इमोशन है...वेरायटी है. और यह सब तकनीक का ही कमाल है. माइक्रो की बदौलत आप वह सब कुछ भी देख सकते हैं, जो पर्दे पर नहीं दिखाई देता, लेकिन मन की आंखें उसे महसूस कर सकती हैं.

और यही महसूस करना इन विज्ञापनों की ताकत है और हमारी संजीवनी. आज सच यह नहीं कि हम मनुष्य हैं, इसलिए महसूस करते हैं, बल्कि यह है कि हम महसूस करते हैं, इसीलिए हम मनुष्य हैं. वर्ना एक विज्ञापन पर हमारा रिएक्शन भी इतना ही संक्षिप्त होगा, जितना कि किसी ऑनलाइन एक्टिविटीज में, यह सिद्ध करने के लिए कि आप मनुष्य हैं, मशीन नहीं, एक बॉक्स में दी गई अक्षर छवियों को ब्लैंक स्पेस में टाइप करना होता है. 

संदीप अग्रवाल