Wednesday, November 23, 2011

समाज का आईना बनते विज्ञापन

अपने शुरुआती दौर से ही विज्ञापन जहां भर की आलोचना झेलते आए हैं. इस मामले में सभी विरोधी एक हो जाती हैं. वामपंथी, उपभोक्तावाद और पूंजीवाद को बढ़ावा देने के लिए विज्ञापनों पर लानतें भेजते हैं, तो उनके घोर विरोधी दक्षिणपंथी विज्ञापनों को हमारे महान सांस्कृतिक मूल्यों का शत्रु करार देते हुए सूली पर चढ़ाने के लिए अक्सर लामबंद नजर आते हैं. विज्ञापनों को गरियाने की यही खुजली कई बार मध्यमार्गियों को भी उठती रहती है. आखिर क्या है विज्ञापनों का कसूर? किसी उत्पाद या सेवा को खरीदने के लिए प्रोत्साहित करना अगर गुनाह है तो दुनिया नाम के बाजार में कौन यह नहीं कर रहा? हर शख्स कहीं न कहीं या तो कुछ बेच रहा है, या खरीद रहा है या फिर दोनों काम कर रहा है. फिर क्यों विज्ञापन लगभग हमेशा, लोगों की आंखों की किरकिरी बने रहते हैं? सबसे ज्यादा, शिकायत जिस बात की लोगों को उनसे रहती है, वह यह है कि उन्हें समाज से कोई लेना-देना नहीं होता. वे सिर्फ बेचने के लिए बने हैं और बाकी दुनिया चाहे भाड़ में जाए, पर उन्हें सिर्फ वो उत्पाद बेचना है, जिसे बेचने के लिए उन्हें गढ़ा गया है.

मुमकिन है कि एक दशक पहले तक इस शिकायत को काफी हद तक वाजिब कहा जा सकता हो, लेकिन आज इसका पूरी तरह समर्थन करना उस रचनात्मकता और गंभीरता के प्रति ज्यादती होगी, जो नई सदी के विज्ञापनों की रीढ़ बन चुकी है. बेशक वे साथ ही साथ अपना उत्पाद भी बेच रहे हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वे सामाजिक सरोकारों से विलग हैं. आज ऐसे अनेक विज्ञापन हैं, जो समाज की विसंगतियों को उजागर करने का दायित्व किसी भी सार्थक फिल्म अथवा साहित्यिक कृति की तरह बड़ी कुशलता से निर्वहन कर रहे हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो

क्यों एक मोबाइल सेवा प्रदाता कम्पनी का विज्ञापन आपको जातिवाद और भाषाई भेदभाव की निरर्थकता का अहसास कराता है? एक चाय की पत्ती के विज्ञापन को क्या गरज है कि वह आपको आपके मत का मोल बताकर आपको मतदान के लिए प्रेरित करे या भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े होने के लिए आपका आह्वान करे, या रिश्वतखोर अधिकारी को शर्मिंदगी का अहसास कराए? एक प्लाई बनाने वाली कंपनी अगर देश की न्यायिक प्रक्रिया की कछुआ चाल पर टिप्पणी करते विज्ञापन को प्रसारण के लिए चुनती है तो क्या उसे कंटेप्ट ऑफ कोर्ट का इल्जाम चस्पां होने का डर नहीं सताता होगा? बालपेन बनाने वाली कंपनी क्यों लिखकर फाड़ देने की बात कहकर राजनीति में बढ़ते अपराधियों के खिलाफ कलम की ताकत को पुन:स्थापित करती है? एक चप्पल बेचने के लिए रचे गए विज्ञापन को क्यों आपका ध्यान सरकारी दफ्तरों में फैली लालफीताशाही की ओर ले जाने के लिए तैयार किया जाता है? इसी तरह एक मोबाइल फोन हैंडसेट के विज्ञापन का नायक एग्जाम का क्वेश्चन पेपर लीक होने पर भी उसकी सहायता नहीं लेता ताकि अपना आत्मसम्मान खोने से बचा सके, तो इसी कंपनी का एक और विज्ञापन ईव्ज टीजर्स को सबक सिखाता नजर आता है. एक टायर कंपनी के विज्ञापन अगर आपको सड़क पर ध्यान से चलने के लिए प्रेरित करते हैं तो कई मोटर साइकिलों के विज्ञापनों में आपने इस बात पर भी गौर किया होगा कि अधिकतर में मॉडल भले ही कितने स्टंट करें, लेकिन सिर पर हेलमेट जरूर पहने नजर आते हैं और कारों के विज्ञापनों में सीट बेल्ट बांधे हुए... सेनेटरी नेपकिन के विज्ञापनों को एक लंबे समय तक अश्लीलता के आरोपों को झेलना पड़ा है, लेकिन क्या आलोचकों ने कभी इस बात पर ध्यान दिया है कि वे बड़ी खामोशी से नारी सशक्तीकरण की प्रक्रिया में अपना योगदान देते हुए नए जमाने की एक बेहद मजबूत, महत्वाकांक्षी, निरंतर सक्रिय स्त्री को पुरुष प्रधान समाज में उसकी असली जगह दिला रहे हैं. यही नहीं न्यूक्लियर फेमिली के इस दौर में आपने कई विज्ञापनों में इस बात पे ज़रूर ध्यान दिया होगा कि उनमे बुजुर्ग और बूढ़े होते माँ-बाप भी प्रमुखता से अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहे हैं. इसी तरह अनेक विज्ञापन इस तरह तैयार किए गए हैं जो लोगों को पर्यावरण रक्षा के प्रति जागरूक करें. ऐसे विज्ञापनों की फेहरिश्त इससे कहीं ज्यादा लंबी हो सकती है. और ऐसी समस्याओं की भी, जिन्हें अभी तक विज्ञापनों की दुनिया ने नहीं छुआ है.

कहने का आशय यही है कि विज्ञापन अगर उपभोक्तावाद को उकसा रहे हैं तो साथ ही साथ अलग-अलग तरीकों से देखने वालों को एक सजग, सतर्क, जिम्मेदार नागरिक होने के लिए भी प्रेरित कर रहे हैं, ताकि एक बेहरीन समाज का निर्माण रखा जा सके. इसलिए अगली बार जब आप किसी विज्ञापन को देखें तो उसे सिर्फ उत्पाद बेचने के लिए आए सेल्समैन के रूप में न देखें, बल्कि उस संदेश को भी पकड़ने की जहमत उठाएं, जो बिटविन द लाइंस, वह आपको देने की कोशिश कर रहा है. भले ही आप उस उत्पाद को खरीदें या न खरीदें, लेकिन यह रचनात्मकता आपकी थोड़ी सी सराहना तो डिजर्व करती ही है. नहीं क्या?

Tuesday, November 8, 2011

जुमले जो बन गए जिंदगी !

हाल ही में एक विज्ञापन आया है , जिसमें एक युवक अपनी सुहागरात पर पत्नी के हाथ पर उसके पूर्व प्रेमी के नाम का टैटू देखता है. वह उसे मिटाने के लिए खूब कोशिश करता है, लेकिन नाकाम रहता है. हारकर वह एक सर्जन के पास जाता है. वह भी उसे मिटाने में अक्षमता जाहिर करता है. युवक न मसोसकर हालात से समझौता कर लेता है. लेकिन जब वह पत्नी के कंधे को अनावृत करता है, तो वहां पर उसके दूसरे प्रेमी के नाम का टैटू देखता है. तब हमें पता चलता है कि यह विज्ञापन ब्लैंक सीडी / डीवीडी का है , जो यह संदेश देना चाहती है कि उनपर दर्ज डाटा को भी मिटा पाना नामुमकिन है.

यही बात कई विज्ञापनों के बारे में भी कही जा सकती है , जो सालों से हमारे दिलोदिमाग पर कुछ ऐसे ही दर्ज हैं कि उन्हें मिटाया नहीं जा सकता. और इनमें से कई की पंचलाइनें तो हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन गई हैं. हमारी बोलचाल में इस तरह शामिल हो चुकी हैं, जैसे कि कभी मुहावरे और कहावतें हुआ करते थे. ऐसा सबसे पुराना जुमला जो याद किया जा सकता है, वह है विल्स सिगरेट का ’मेड फार इचअदर’ करीब तीन दशक पुरानी इस छोटी सी लाइन का इस्तेमाल आज भी अनेक मैरिड कपल , पुराने दोस्तों की सराहना के लिए इस्तेमाल किया जाता है.

इसी तरह अपने आत्मविश्वास को दर्शाने के लिए एक वक़्त कभी 'कुछ खास है हम सभी में...' का प्रयोग होता था तो वक़्त के साथ कदमताल करते हुए आज 'हम में है हीरो..' का होता है. वहीं किसी की व्यंग्यात्मक प्रशंसा के लिए ' बढि़या है...सुनील बाबू’ या 'पप्पू पास हो गया..' या ऊँचे लोग,ऊँची पसंद...जैसे वाक्यों का इस्तेमाल होता है तो अपनी शैतानियों को जायज ठहराने के लिए ' पागलपंती भी ज़रूरी है ', किसी को आश्वस्त करने के लिए, '‘हम हैं ना...' हमेशा साथ का भरोसा दिलाने के लिए ' जिंदगी के साथ भी , जिंदगी के बाद भी...' खाने के बाद या शगुन के तौर पर ' कुछ मीठा हो जाए...जैसे वाक्य भी हैं , जिन्हें हम अक्सर लोगों को दोहराते सुन सकते हैं. कई पंचलाइने नसीहतों की तरह इस्तेमाल की जाती हैं , जैसे ' दिखावे पे मत जाओ, अपनी अक्ल लगाओ', 'पहले इस्तेमाल करें, फिर विश्वास करें...' तो कई ख्वाहिशें जाहिर करने के लिए, जैसे की 'ये दिल मांगे मोर...' या एक से मेरा क्या होगा...' कई जुमले तो बिना उनका सन्दर्भ जाने भी, लोग बहुत उदारता और बेतकल्लुफी के साथ इस्तेमाल करते हैं. ये तो बड़ा ट्विंग है..., ये आराम का मामला है... जोर का झटका,धीरे से लगे...इसी श्रेणी में आते हैं. जिंदगी का हिस्सा बनते जुमलों की इस परंपरा में हाल ही में एयरटेल का 'जिंदगी में हरेक फ्रेंड जरूरी होता है...' भी शामिल हुआ है , जो यंगस्टर्स के बीच बहुत तेजी से लोकप्रिय हो रहा है और एसएमएस व सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर काफी इस्तेमाल किया जा रहा है.

समय के साथ हर समाज अपने लिए कुछ मुहावरे गढ़ता है. कभी बातचीत में तुलसीदास , रहीम , कबीर जैसे संत कवियों के दोहे शामिल हुआ करते थे , फिर उनकी जगह किताबी मुहावरे और लोक कहावतें आईं, इसके बाद सिनेमा के डायलाग हमारी बातचीत का हिस्सा बने और आज विज्ञापनों की पंचलाइने यह भूमिका अदा कर रही हैं , जो लंबाई में छोटी , मगर अर्थों में व्यापकता की वजह से हमारी भाषा को एक नई धार दे रही हैं.

मनोरंजन की एक नई विधाः विज्ञापन

एक जमाना था, जब टेलीविजन पर किसी कार्यक्रम या फिल्म के बीच आने वाले विज्ञापनों को अनचाहे मेहमानों की तरह देखा जाता था और उनके प्रसारण के दौरान घर के लोग इधर-उधर के काम निपटाते थे और ब्रेक खत्म हो गया की एक आवाज सुनते ही वापस टेलीविजन के सामने आ बैठते थे. लेकिन आज हालात एकदम बदल चुके हैं. रचनात्मकता के फैलते फलक और और तकनीक के लगातार उन्नत होने ने विज्ञापनों को पूरी तरह बदल दिया है और आज विज्ञापन भी किसी सीरियल या फिल्म की तरह न सिर्फ देखे जाते हैं, बल्कि आम लोगों की चर्चाओं के बीच भी जगह पाते हैं. अगर कहें कि विज्ञापन के रूप में हमें मनोरंजन की एक नई विधा मिल गई है, तो यह गलत न होगा.
मनोरंजन के उद्देश्य से जो भी रचा जाता है, आखिर उसका पैमाना क्या है? सबसे पहली शर्त, उसे दिलचस्प होना चाहिए. इसके बाद उसका दर्शकों से जुड़ाव होना चाहिए, उसमें एक कथा, एक संदेश होना चाहिए और बहुत ज्यादा हुआ तो उसकी सोशल एंड पीरियड रेलिवेंसी होनी चाहिए. विज्ञापन मनोरंजन की इन सभी कसौटियों पर खरे उतरते हैं. उनमें एक साहित्यिक रचना की तरह एक शुरूआत, एक मध्य, एक अंत होता है...अलंकार होते हैं, रस होते हैं. किसी फिल्म की तरह संगीत होता है, एक्शन होता है, इमोशन होती हैं, कला होती है, कविता होती है, रंगों और रोशनी का तिलिस्म होता है और सबसे बढ़कर एक कौतूहल होता है, जो देखने वालों को अंत तक उससे बांधे रखता है. कम से कम समय में बड़ी-बड़ी बातें कह डालना इन विज्ञापनों की सबसे बड़ी खासियत होती है, जो आज के करीब पॉंच मिनट तक देखने वालों का अटेंशन बनाए रखने के छोटे से टाइम स्पॅन के 20-25 फीसदी समय का इस्तेमाल कर बड़ी कुशलता से अपनी बात उन तक पहुंचाकर, उन्हें सोचने के लिए छोड़कर रफूचक्कर हो जाते हैं. उनका संदेश, किसी भी कहानी या फिल्म के संदेश की तरह मन के गहरे तक पैठ बनाता है. फर्क यह है कि वहां एक विचार की मार्केटिंग हो रही है, यहां एक उत्पाद की.
विज्ञापनों ने अपने आपको समाज से भी जोड़ा है. कहीं वे करप्शन के खिलाफ लोगों को जगाते नजर आते हैं, कहीं दूसरों की मदद का संदेश देते हुए. परिवार और प्यार के रिश्तों को नई ऊर्जा देनें में भी वे पीछे नहीं हैं. रस्मों और रिवाजों को निभाने की सीख भी वे देते हैं, भले ही अपने उत्पाद के उपभोग की सलाह देते हुए. एक मॉं की ममता भी यहॉं है और पिता की जिम्मेदारी भी, बचपन की चपलता से भी आप यहॉं साक्षात कर सकते हैं और टीनएज की अल्हड़ता, मगर अपने लक्ष्य के प्रति संजीदगी से भी. विज्ञापन हमारे समाज, हमारे परिवार और खुद हमारा आईना बन चुके हैं. लोककहावतों की तरह ये भी हमारे जीवन के मुहावरे बन गए हैं. बातचीत में हम इनकी पंचलाइन का इस्तेमाल करते हैं और कुछ मीठा हो जाए, पागलपंती भी जरूरी है, पप्पू पास हो गया, एक से मेरा क्या होगा, जिंदगी के साथ भी-जिंदगी के बाद भी जैसे जुमलों का मौके बेमौके इस्तेमाल कर अपने मित्रों-परिचितों को अपनी हाजिरजवाबी का लोहा मनवाते हैं. ये वक्त के साथ कदमताल में कहीं भी पीछे नहीं हैं. यही वजह है कि एक समय दाग ढूंढते रह जाओगे की पंचलाइन के साथ अपनी क्वालिटी को साबित करने वाला एक डिटर्जेंट आज दाग अच्छे हैं की हिमायत करता नजर आता है. यह है समय के साथ बदलने और समाज के साथ जुड़ाव को बनाए रखने की कला, जिसमें विज्ञापन भली-भांति माहिर हो चुके हैं.
इसलिए आज जब आप अपने दोस्त को आपसे यह पूछते सुनते हैं कि क्या तुमने फलां एड देखा है? तो आपको ताज्जुब नहीं होता. क्योंकि उसके सवाल का जवाब देने के साथ ही आपके पास भी डिस्कस करने के लिए एक एड मौजूद होता है.