Saturday, February 20, 2021

बातें—मुलाकातें : 45 (अन्नू कपूर)

दूरदर्शन के सुनहरे दौर में सुबहसुबह आने वाले लतीफों के प्रोग्राम हँसोहँसो से जीटीवी के क्लोज अप अंत्याक्षरी की मेजबानी हो या फिल्मों में विभिन्न शेड्स की भूमिकाएं...अन्नू कपूर जिस चीज से भी जुड़े, दर्शकों के दिल पर अपनी एक अमिट छाप छोड़ने में कामयाब रहे.



मेरे दिल पर भी छोड़ी है, लेकिन कुछ अलग तरह से. इस मुलाकात में रूठनामनाना और मान जाना जैसी चीजें शामिल हैं. दिल्ली में फ्रीलांसिंग करते हुए पता चला कि अन्नू और दुर्गा जसराज क्लोजअप अंत्याक्षरी का लाइव शो करने के लिए  दिल्ली आए हुए हैं और आॅफिशियल होस्ट था एक फाइव स्टार होटल. हमेशा की तरह मैंने होटल कॉल करके अन्नू कपूर से बात कराने के लिए कहा. बात हुई तो मैंने अपना उद्देश्य बताया. अन्नू कपूर ने कहा कि वह एक बजे आंध्र भवन आ रहे हैं. मैं वहीं आ जाऊं तो इंटरव्यू कर लेंगे.

मैं  शार्प 1.00 बजे वहाँ पहुँच गया. हालांकि कार्यक्रम छह बजे शुरू होना था, लेकिन तब तक आॅडिटोरियम में पार्टिसिपेंट्स का आना शुरू हो चुका था. अन्नू का कोई अतापता नहीं था.

मैंने इंतजार शुरू कर दिया. एक घंटा बीत गया तो फिर से होटल कॉल लगाया. पता चला कि अभी उन्हें पहुँचने में एक घंटा और लगेगा. अब आया था तो इंटरव्यू किए बिना जाना बेवकूफी ही होती. वैसे भी हम फ्रीलांसरों के पास फ्री टाइम की कोई कमी तो होती नहीं थी और न ही सब्र की, तो फिर से इंतजार शुरू. और एक घंटा ऐसे ही बीत गया. अब थकान और झुंझलाहट होने लगी. करीब चार बजे अन्नू कपूर का आगमन हुआ. मैंने तेजी से जाकर उन्हें थाम लिया और उन्हें याद दिलाया कि उन्होंने इंटरव्यू देने के लिए बुलाया था. उन्होने पार्टिसिपेंट्स की तरफ इशारा करते हुए कहा कि थोड़ा इन लोगों को बिजी कर देता हूँ, इसके बाद बात करते हैं.

अब अन्नू बिजी हुए तो ऐसे कि अगले डेढ़ घंटे तक उन्हीं में उलझे रहे. जैसे ही मैंने उन्हें अकेले देखा, मैंने उनसे पूछा कि क्या अब इंटरव्यू कर सकते हैं. उन्होंने कहा कि आप देख ही रहे हैं यहाँ का हाल, ऐसे में कैसे हो पाएगा. अब मेरे सब्र का पैमाना छलक उठा. मैंने तीखे स्वर में कहा कि क्या मतलब है कि कैसे हो पाएगा. मैं पिछले साढ़े चार घंटे से आपका इंतजार कर रहा हूँ और अब आप बोल रहे हैं कि नहीं हो पाएगा.

इस पर अन्नू कपूर सकपका गए, उन्हें मुझसे ऐसी उम्मीद नहीं थी शायद. वे मेरे कंधे पर हाथ रखकर बोले, आइए मैं अभी साढ़े चार गाने सुनाकर आपकी नाराजगी दूर कर देता हूँ. फिर वे बोले कि मैं आपसे दोगुनी उम्र का हूँ, फिर भी आपको सॉरी बोल रहा हूँ.

उनके सॉरी बोलने से मुझ पर घड़ों पानी पड़ गया और मुझे लगा कि मुझे इस तरह आपा नहीं खोना चाहिए था. खैर, इसके बाद हम लोगों के बीच करीब आधा घंटा बात हुई और काफी मजेदार बात हुई, जिसका कुछ मजा आप भी ले सकते हैं, इस इंटरव्यू को पढ़कर...

अगले ही दिन अन्नू से फिर मुलाकात हुई, जब मैं उसी होटल में दुर्गा जसराज का इंटरव्यू करने गया था. मुझे देखते ही उन्होंने तुरंत मुझे पहचान लिया और अपनी ओर से विश किया और हाथ से इशारा करते हुए पूछा कि कैसे? मैंने बताया कि दुर्गा जी का इंटरव्यू करने आया हूँ. उन्होंने कहा कि जाइए, वो आप ही का वेट कर रही हैं.

अन्नू के बारे में एक और दिलचस्प बात, जो बहुत कम लोग जानते हैं. उनका असली नाम अनिल कपूर है. लेकिन उनके फिल्मों में आने से पहले अनिल कपूर एक स्थापित नाम बन चुके थे, इसलिए वह ​अपना निकनेम ही इस्तेमाल करने लगे.

आज अन्नू कपूर का जन्मदिन है, इस मौके पर उन्हें हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं.

interview




Thursday, February 18, 2021

बातें—मुलाकातें: 44 (सुरेंद्र मोहन पाठक)

जासूसी की किताबें पढ़ने का शौक मुझे बचपन से ही था. जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा, वेदप्रकाश काम्बोज के नोवेल अच्छे लगते थे, लेकिन गुत्थियां सुलझाने के मामले में कर्नल रंजीत को ज्यादा पसंद करता था



उन दिनों, .मैं एक रद्दी की दुकान से पुरानी किताबें खरीद कर पढ़ा करता था. एक दिन मैंने लाश का कत्ल देखा. उसके अंतिम कवर पर संजीव कुमार से मिलते-जुलते गेटअप वाले उनके ब्लैक एंड व्हाइट फोटो के नीचे लिखा था कि सुरेंद्र मोहन पाठक के उपन्यास उस वर्ग में भी पढ़े जाते हैं, जो आमतौर पर जासूसी उपन्यासों के नाम से नाक-भौं सिकोड़ते हैं

इस लाइन से मैं बड़ा प्रभावित हुआ और वो किताब भी खरीद ली... मेजर बलवंत गुत्थियां तो सुलझाता था, लेकिन कैसे सुलझाई, इस बारे में जानकारियां देने से बचता था. पाठक जी का किरदार सुनील जिस तरह से तार्किक ढंग से पढ़ने वाले के मन में उठ रहे सवालों का जवाब दे रहा था, उसे पढ़कर मजा गया और इतना ज्यादा कि कुछ ही हफ्ते बाद एक बस अड्डे के बुकस्टॉल पर उनकी शूटिंग स्क्रिप्ट दिखी तो तुरंत छह रुपए खर्च कर वो किताब खरीद ली. यह पहला उपन्यास था, जो मैंने नया और पूरी कीमत देकर खरीदा था. लाश के कत्ल ने मुरीद बनाया था, इसने सैदाई बना दिया. फिर मिली सिन्हा मर्डर केस... इसके कोर्ट रूम ड्रामा ने एक नया अनुभव दिया.

ये वो दौर था, जब पाठकों के पास अपने प्रिय लेखकों को पत्र लिखने का भरपूर वक्त होता था और लेखक वक्त होते हुए भी पाठकों के पत्रों का उत्तर देना अपना फर्ज समझते थे और उन्हें कभी निराश नहीं करते थे. पाठक जी से भी पत्राचार आरंभ हुआ और कई बार कई अच्छी-अच्छी जानकारियाँ मिलीं.

एक और बात, जिसका जिक्र करना जरूरी है. मुझे पत्रकार बनने की प्रेरणा सुनील के नोवल पढ़कर ही मिली थी. इससे पहले सिर्फ एक लेखक बनना चाहता था, इसने और एक लक्ष्य मेरे सामने जोड़ दिया. हालांकि हकीकत में मैं खुद सुनील जैसा पत्रकार बन पाया और ही कभी ऐसे किसी पत्रकार से मिलना हुआ. हकीकत और कल्पनाओं का एक और फर्क मैंने यह भी जाना कि पाठक जी के उपन्यासों की भाषा का मेरे व्यक्तित्व पर बहुत ज्यादा असर आने लगा था, उनके लिखे जुमलों को दोहराने के चक्कर में मैंने बहुत सारे लोगों का नाराज किया, कई बार पिटने तक की नौबत गई.. पर अब इस आदत पर काबू पाना सीख लिया है और कहॉँ पाए जाते हैं, हो क्या चीज जैसे चुभने वाले वाक्यों का इस्तेमाल नहीं करता.

कुछ साल बाद मैं विधिवत प्रशिक्षण प्राप्त कर पत्रकार बन चुका था और सेलिब्रिटी इंटरव्यू का अच्छा खासा अनुभव हासिल हो चुका था. उन दिनों मैं दैनिक भास्कर के मैगजीन सेक्शन की एडिटोरियल टीम का हिस्सा था. एक दिन, अचानक मन में आया कि देश में जासूसी उपन्यासों और उनके किरदारों पर कुछ अच्छी सामग्री क्यों दी जाए, जाहिर है इसके लिए अपने प्रिय लेखक सुरेंद्र मोहन पाठक जी से बढ़िया और कौन हो सकता था, जिसके पास जाया जा सकता था. वर्षों से उनके उपन्यास पढ़ता रहा था तो एक पत्रकार से ज्यादा एक प्रशंसक के रूप में उनसे मिलने की ख्वाहिश थी, जो इंटरव्यू के बहाने पूरी होने जा रही थी. इधर-उधर से उनका नंबर जुगाड़ा और मुलाकात का वक्त मुकर्रर हुआ. संयोग ये कि हम लोगों के घर भी बहुत दूर नहीं थे. मैं लक्ष्मी नगर में रहता था और वो कृष्ण नगर में. मैं पूरी पत्रकाराना सजधज के साथ उनसे मिलने पहुंचा. इंटरव्यू तो हुआ ही, लेकिन इससे इतर बहुत सारी ऑफ रिकॉर्ड गुफ्तगू भी हुई, जिसमें कई कथित महान लोगों के कच्चे चिट्ठे जानने को मिले. कुछ उपन्यासों के कुछ अंशों पर भी खूब बात हुईं, जिसमें हम दोनों की बहुत आनंदित हुए.

मुलाकात हुई और साक्षात्कार भी. एक मशहूर हस्ती और एक पत्रकार से ज्यादा, एक लेखक और उसके प्रशंसक की बातचीत बहुत दिलचस्प थी. मैं उनके उपन्यासों के कुछ संवाद उन्हें बताता, और वे पूरा करते जाते. उनकी याददाश्त देख के मैं हैरान था और मेरी याददाश्त देखके वो खुश. बात चलती गई. बहुत सारे लेखकों के बारे में बहुत सारी ऐसी बातें पता चलीं, जो पहले कभी नहीं जानी थीं. मसलन, कौन किसके नाम से लिखता था, कौन अपनी पत्नी की लिखी चीजों को अपनी बताकर छपवाता था, कौन सा मशहूर साहित्यकार छिप-छिपकर छद्म नाम से पल्प फिक्शन भी लिखता था...वगैरह-वगैरह. जाहिर है कि वो सब बातें छापने के लिए नहीं थी. हमने अपने सपने साझा किए, मैंने बताया कि अगर मैं कभी फिल्म या सीरियल बनाने लायक हुआ तो आपके उपन्यासों पर फिल्म बनाने की तमन्ना है.

उन्होंने बताया कि उनका भी सपना था कि अपने उपन्यासों पर फिल्म बनाएं. पहले पैसा नहीं था, और जब पैसा आया तो उतना उत्साह नहीं बचा. मैं आज भी इस सपने को पूरा करने का सपना देखता हूँ और उम्मीद करता हूँ कि एक दिन मेरे पास इतना पैसा जाएगा कि सिन्हा मर्डर केस, क्राइम क्लब या शूटिंग स्क्रिप्ट, ये कुछ ऐसे उपन्यास हैं जिन पर कम बजट में अच्छी फिल्में बनाई जा सकती हैं, जैसे कथानकों को पर्दे पर उतार सकूँ.

लोकप्रिय साहित्य को पाठक जी का सबसे बड़ा योगदान यह है कि एक ऐसे दौर में जब हिंदी बेल्ट में दर्जनों चलताऊ लेखक बाजार में लोकप्रियता हासिल कर रहे थे, पाठक जी ने अपने लेखन के स्तर को कभी नीचे नहीं उतरने दिया. इसी का परिणाम है कि आज दशकों बाद भी पाठक जी अपने सभी समकालीन लेखकों के बीच सिर्फ सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लेखक के रूप में प्रतिष्ठित हैं, बल्कि जासूसी कथानकों को लुगदी साहित्य की कैद से निकालकर मुख्यधारा के साहित्य में लाने का श्रेय भी पाठक जी को ही जाता है.

आज पाठक जी के जन्मदिन के अवसर पर उनके दीर्घ, स्वस्थ और सतत् सक्रिय जीवन के लिए हार्दिक शुभकामनाएं...

Friday, February 12, 2021

बातें-मुलाकातेंः 43 (रजत कपूर)

पत्रकारिता करते हुए आप हमेशा अपने मकसद में कामयाब होते नहीं रह सकते. लेकिन जब नाकामी की वजह आपका अहमकानापन हो तो बात कुछ ज्यादा ही कचोटती है.


मुझे भी इसका अनुभव हुआ है, जिसके लिए मैं आज भी अफसोस करता हूँ. बात तब की है जब रजित कपूर दूरदर्शन के धारावाहिक व्योमकेश बख्शी से एक बड़े स्टार बन चुके थे और श्याम बेनेगल की सूरज का सातवां घोड़ा से हिंदी फिल्मों में भी एक जाना-पहचाना चेहरा बन गए थे. इसी फिल्म के लिए उन्हें अपने बेहतरीन अभिनय के लिए नेशनल अवार्ड मिला था, तो उनका नाम और भी व्यापक स्तर पर मशहूर हुआ. सारी कहानी इसी नाम के इर्दगिर्द घूमती है. अमूमन हम हिंदी मीडिया वाले विदेशी नामों को लेकर एकमत नहीं हो पाते कि इसे कैसे लिखा जाए, जैसे कि गोर्वाच्योफ और गोर्बाच्योब के कन्फ्यूजियन से हमारी पत्रकार मित्रमंडली इतना तंग आ गई थी कि उन्हें गड़बड़चो... बोलने लग गई थी. लेकिन, रजित कपूर तो एक देशी नाम था फिर भी हिंदी के दर्शक और अखबार उन्हें रजत कपूर ही समझते-बोलते और लिखते थे. उन्हें भी क्यों दोष दिया जाए, जब दूरदर्शन पर धारावाहिक के क्रेडिट्स तक में भी उनका नाम रजत कपूर ही लिखा होता था.
एक राष्ट्रीय दैनिक में छपे समाचार से पता चला कि रजत (असल मे रजित) कपूर अपना नेशनल अवार्ड लेने दिल्ली आए थे.. यह खबर फिल्म बीट देख रहे एक वरिष्ठ पत्रकार ने लिखी थी, जो आजकल एक बड़े अखबार के समूह संपादक हैं. उन्होंने खबर में लिखा था कि अभिनेता रजत कपूर ने निर्देशन के क्षे़त्र में भी हाथ आजमाया है और उनके वृत्तचित्र तराना को सर्वश्रेष्ठ डॉक्यूमेंट्री का पुरस्कार मिला है.
मैंने पता निकाला कि वे कनिष्क होटल में रुके हैं. हमने होटल कॉल किया और रजत जी से मिलने का समय ले लिया. कुछ देर बाद मैं होटल जा पहुँचा और रिसेप्शन पर उनके बारे में पूछा. थोड़ी ही देर में रजत कपूर (भेजा फ्राई फेम) रिसेप्शन पर आ गए और रिसेप्शनिस्ट से कुछ पूछा. उसने मेरी ओर इशारा कर दिया. रजत ने मुझसे हाथ मिलाया और वहीं लॉबी में बैठकर मुझसे बातचीत करने लगे. मैं उन्हें पहचानने की कोशिश कर रहा था कि ये रजत कपूर तो नहीं लग रहे. फिर लगा कि कई लोग पर्दे पर और रीयल लाइफ में काफी अलग दिखते हैं,
शायद यह भी इसी वजह से हुआ हो. लेकिन, दो तीन सवालों के बाद ही हम दोनों को एहसास हो गया कि यह सही जगह पर गलत आदमी का मामला है. उन्होंने मुझसे पूछा भी कि कहीं आप गलत आदमी का इंटरव्यू तो नहीं कर रहे, मैं चाहकर भी स्वीकार नहीं कर पाया कि मैं गलती कर रहा हूँ और इंटरव्यू जारी रखा. हालांकि मेरा अब इंटरव्यू में बिल्कुल मन नहीं लग रहा था, क्योंकि जिस शख्स का इंटरव्यू मैं करने आया था, मेरे सामने वह नहीं था और जिसका इंटरव्यू मैं कर रहा था, वह न जाने कौन था. हालांकि बातचीत से इतना तो पता लग ही गया था यह रजत कपूर भी एक्टर-डायरेक्टर थे और थिएटर करते थे. बेमन से किए गए इस इंटरव्यू का वही हश्र हुआ, जो अपेक्षित था. मैंने न उसे लिखा और न छपने दिया.
अब आप समझ गए होंगे कि मैं किस रजत कपूर की बात कर रहा हूँ.. आज वह पैरेलल-कम-कमर्शियल सिनेमा में एक जाना-पहचाना नाम बन चुके हैं और शायद पहले वाले रजत सॉरी रजित कपूर से ज्यादा व्यस्त होंगे. जब भी मैं उनकी कोई फिल्म देखता हूँ, मुझे उनके साथ मुझसे अनजाने में हुई नाइंसाफी याद आ जाती है. हालांकि मैं अगर इंटरव्यू लिखकर दे भी देता तो मेरा सपना कॉलम की शर्तों के मुताबिक इसका छपना मुश्किल ही था, लेकिन कम से कम मुझे तो अपना काम करना चाहिए था. इस पूरे प्रकरण में एक दिलासा देने वाली यह बात जरूर हुई कि उन दिनों इंडिया का पहला एडल्ट टीवी चैनल 21 प्लस लॉन्च किए जाने की खबरें थीं तो इस पर मैंने एक परिचर्चा प्लान कर रखी थी. मैंने रजत कपूर से एक निर्देशक की हैसियत से उनके विचार पूछ लिये थे. जब परिचर्चा लिखकर दी तो उनके विचार भी उसके अंतर्गत छप गए. लेकिन मेरे गिल्ट को कम करने के लिए यह नाकाफी ही था.
दो-तीन साल पहले व्योमकेश वाले रजित कपूर को एक कार्यक्रम में नागपुर बुलाया गया था. सोचा कि उनसे जाकर यह अनुभव साझा करूँ, फिर लगा कि यह एक और बेवकूफी होगी, इसलिए इस इरादे को तभी किनारे कर दिया.
आज रजत के जन्मदिन पर अपनी इस मूर्खता के लिए क्षमाप्रार्थना के साथ उन्हें असंख्य शुभकामनाएं...

Friday, February 5, 2021

बातें-मुलाकातें: 42 (जयप्रकाश भारती)

तीन दशकों से भी ज्यादा अर्से तक बालपत्रिका नंदन के संपादक रहे स्वर्गीय जयप्रकाश भारती जी एक ऐसी शख्सियत थे, जिन्होंने अपना सारा जीवन बच्चों को समर्पित कर दिया. साहित्यिक पत्रकारिता में जो रूतबा डॉ. धर्मवीर भारती का था, बाल पत्रकारिता में वही रुतबा जयप्रकाश भारती जी का था. उनसे मेरा परिचय बचपन से ही था, जब मैं नंदन के पाठक की हैसियत से कभी-कभार उन्हें पत्र लिखता था और उनका उत्तर पाकर खुशी से फूला नहीं समाता था. वे संपादकीय में स्वयं को तुम्हारा भैया, जयप्रकाश भारती लिखते थे तो हम भी उन्हें भैया जी ही कहा करते थे.




जब दिल्ली जाकर पत्रकारिता आरंभ की तो अलग-अलग प्रकाशनों के संपादकों से मिलना-जुलना शुरू हो गया. लेकिन, जितनी बेतकल्लुुफी और अपनापन भारती जी से बात करते हुए अनुभव होता था, उतना कहीं और नहीं हुआ. वह संघर्ष और फाकमस्ती का दौर था, ऐसे में उनका स्नेह, सहानुभूति और मार्गदर्शन बहुत संबल प्रदान करता था. हम दोनों ही पश्चिम उत्तर प्रदेश से थे, तो उनकी बेतकल्लुफी में किसी पर गुस्सा जाहिर करते हुए स्थानीय गाली का भी समावेश हो जाया करता था. 


हमारे एक रैकेटियर प्रोफेसर थे, उन्होंने अपने एक जातभाई संपादक का इंटरव्यू लेने के लिए भेजा. हमारे सहपाठी उमेश चतुर्वेदी जी की मीडिया की भीतरी खबरों पर काफी पैनी नजर रहती थी. उन्होंने बताया कि वह संपादक दैनिक जागरण में जाने वाले हैं. मैंने उनका इंटरव्यू करते समय इस नायाब जानकारी का बेजा इस्तेमाल करते हुए उनसे पूछ लिया कि सुना है कि आप.... इस पर वे भड़क उठे और भद्रता व भलमनसाहत का नकाब फेंकते हुए मुझे खरी-खोटी सुनाने लगे कि आपने ऐसा सवाल पूछ कैसे लिया वगैरह-वगैरह और मेरा यह पहला इंटरव्यू बुरी तरह फ्लाप रहा. 


भारती जी और वह संपादक चूंकि एक ही प्रकाशन समूह में काम करते थे, इसलिए मैंने उनसे यह अनुभव साझा किया. इस पर उन्होंने उस संपादक को गाली देते कहा कि भैनचो, ऐसे लोग ही तो पत्रकारिता के कलंक हैं. आपने उन्हें कोई गाली थोड़े ही दे दी थी, जो वे इतना भड़क रहे थे. फिर उन्होंने बताया कि उन्होंने ऐसे कई संपादकों को मालिकों के तलवे चाटते हुए देखा है. उनका कहना था कि ये मैं कोई मुहावरा नहीं बोल रहा हूँ, बल्कि वास्तविकता बता रहा हूँ. फिर उन्होंने बाकायदा जीभ निकालकर अपनी हथेली पर फिराते हुए डेमो दिखाया कि ऐसे तलवे चाटते हुए देखा है.


ऐसे ही एक बार उन्होंने मुझसे कहा कि आप दिल्ली प्रेस में काम के लिए क्यों कोशिश नहीं करते? मैंने कहा कि सुना है वहाँ शोषण बहुत करते हैं. इस पर वे नाराज हो गए, बोले कि शोषण क्या होता है? हो सकता है कि वे कम वेतन देते हों, लेकिन आप इसे स्वीकार करते हैं तभी काम पर जाते हैं. फिर उन्हें पता नहीं क्या सूझी, कहने लगे कि ऐसे ही बहुत सारी लेखिकाएं हैं. जो पहले छपने के लिए समझौते करती हैं और बाद में कहती हैं कि मेरा शोषण हुआ. हालांकि उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि भोगी संपादकों में वे शामिल नहीं हैं. हालांकि मेरे बार-बार पूछने पर भी उन्होंने किसी लेखिका का नाम नहीं बताया.


ऐसी तमाम हल्की-फुल्की बातों के बीच एक बार उन्होंने एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही. उन्होंने मुझसे पूछा कि आप क्यों लिखते हैं, मैंने कहा नाम के लिए. उन्होंने समझाया कि नाम बहुत बड़ा भ्रम है. फिर उन्होंने मुझे विष्णु पराड़कर और उनके समकालीन कई पत्रकारों के नाम गिनाए और बोले कि इनमें से आपने किस-किस का नाम सुना है. मैंने दो-तीन नाम बताए. इस पर वे बोले कि ये सभी लोग अपने वक्त के नामचीन पत्रकार रहे हैं. आप पत्रकारिता में होकर भी इनमें से ज्यादातर के नाम से परिचित नहीं है तो सोचिए कि कहाँ गया इनका नाम. इसलिए दाम की सोचिए. इस बात का मुझ पर यह असर हुआ कि मैं कॉपी राइटिंग या घोस्ट राइटिंग जैसे काम भी करने लग गया, जिनके साथ नाम तो नहीं जाता था, लेकिन पैसे अच्छे मिल जाते थे.


एक बार नंदन में उपसंपादक की जगह खाली हुई. मैंने उनसे कहा कि मुझे यह जॉब मिल सकती है क्या, उन्होंने कहा कि एक रिटेन टेस्ट होगा, उसे पास कर लीजिए. बाद में देख लेंगे. मैंने यह टेस्ट क्वालीफाई किया, इंटरव्यू के लिए कॉल लैटर भी आया, लेकिन इतना देर से कि दिल्ली में मेरा डाक का पता बदल चुका था और जब मुझे इसका पता चला, तब तक बहुत देर हो चुकी थी. मैं उनसे मिला तो उन्हें भी बहुत अफसोस हुआ. वे बोले कि अभी तो किसी और को नियुक्त कर लिया गया है. बाद में कभी देखते हैं.


आज उनकी पुण्यतिथि है, इस मौके पर उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि. के साथ ऐसी अनगिनत यादे हैं जो साझा की जा सकती हैं, लेकिन बजाए इसके आप इस बेहतरीन इंटरव्यू का आनंद लीजिए, जो बाल पत्रकारिता और लेखन से जुड़ी अनेक चुनौतियों से परिचित कराता है.