Tuesday, October 27, 2020

बातें—मुलाकातें : 26 (सत्येन कप्पू)

गरीबी और लाचारगी को अगर कोई चेहरा दिया जाए तो वह या तो ए.के.हंगल जैसा होगा, या फिर सत्येन कप्पू जैसा. दोनों में बुनियादी फर्क यह था कि ए.के.हंगल को अपने व्यक्तित्व की अभिजात्यता को अपने बेजोड़ अभिनय से दीनता का जामा पहनाने में महारत हासिल थी, तो सत्येन कप्पू एक स्वाभाविक रामू काका ही नजर आते थे. हालांकि बहुत सी फिल्मों में उन्होंने धनिकों और पुलिस अधिकारियों की भी भूमिकाएं कीं, लेकिन शोले में रामू काका की छाप उनके व्यक्तित्व पर ऐसी पड़ी कि नौकर की भूमिका में उन्हें देखकर लगता ही नहीं था ​कि वे अभिनय कर रहे हैं. वे करीब चार दशकों तक अभिनय में सक्रिय रहे और इस दौरान उन्होंने चार सौ के लगभग फिल्मी भूमिकाएं कीं. इंडस्ट्री में उनकी क्या अहमियत थी, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मिथुन चक्रवर्ती की सुपरहिट फिल्म घर एक मंदिर में घर के दिवंगत पिता के रूप में सिर्फ उनकी तस्वीर का इस्तेमाल किया गया था, लेकिन फिल्म के क्रेडिट्स में उनका नाम बाकायदा मुख्य अभिनेताओं के साथ दिया गया था.


सत्येन कप्पू से मेरी मुलाकात मंडी हाउस में दूरदर्शन के रिसेप्शन पर हुई, जहाँ मैं रिपोर्टिंग के सिलसिले में गया हुआ था और वे किसी से मिलने आए हुए थे. मैंने उन्हें पहचान तो लिया, लेकिन फिर भी पुष्टि के लिए उनसे पूछ ही लिया कि क्या वे सत्येन कप्पू ही हैं. उनके हाँ कहने पर मैंने उन्हें अपना परिचय दिया और कहा कि मैं आपका इंटरव्यू करना चाहता हूँ. उन्होंने अगले दिन मयूर विहार ​बुला लिया, जहाँ वे अपने मित्र के घर पर ठहरे हुए थे.


मैंने सुबह—सुबह अपने ​मित्र विकास मिश्र ( वर्तमान में आज तक न्यूज चैनल में प्रोड्यूसर) के साथ, जो दुर्गम और दूरस्थ स्थानों पर जाने के लिए अक्सर मेरे लिए बहुत मददगार साबित होते थे, वहाँ धावा बोल दिया. उन्होंने पूछा कि बताइए आप क्या जानना चाहते हैं, मैंने उन्हें मेरा सपना कॉलम के बारे में बताया. उन्होंने कहा कि क्या आपको लगता है कि इस उम्र में मेरा कोई सपना बाकी बचा होगा. मैंने उन्हें स्पष्ट किया कि हमारा कॉलम सपनों में ड्रीम्स, डिजायर्स और एंबीशंस इन सबको शामिल करता है. ठीक है पूछिए, उनके यह कहने पर मैंने सवालों का सिलसिला शुरू कर दिया. वे बड़े धैर्य और उत्साह से जवाब देते गए.

उनकी पर्दे पर जो छवि है, उसे देखते हुए कोई कल्पना तक नहीं कर सकता कि उनके मन में किस तरह के झंझावात चल रहे हो सकते थे. बेचैनी, घुटन,भय, कसक... उनके सपनों में मुझे सब चीजों का समावेश मिला.

इन सपनों में एक बड़ा दिलचस्प सपना भी था. वह ये कि अनुपम खेर उनके सपने में आए और उन्हें गीत लिखवाने लगे. और यही नहीं वह सपने से जागे और अलसुबह उठकर उन्होंने वह गीत कलमबद्ध भी किया. इसके बाद सत्येन जी ने मुझे सस्वर वह गीत सुनाया.

आज सत्येन साहब की तेरहवीं पुण्यतिथि है. इस अवसर पर उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि.

interview


Sunday, October 25, 2020

कुछ खत, कुछ खताएं... (1)

 कटे अल्फाजों वाली इबारत 

रवीना से न मेरी कभी बात हुई है न मुलाकात, फिर भी आज जिक्र छेड़ने की दो वजह हैं. एक तो बचपन में उनसे जुड़ी एक प्यारी सी याद और दूसरा उनका जन्मदिन. पहले याद को याद करते हैं. बचपन से ही मुझे न्यूजपेपर, मैगजीन और बुक्स पढ़ने का बहुत शौक रहा, क्योंकि हमारे घर में तीनों ही चीजें भरपूर मात्रा में पाई जाती थीं. इन्हीं मैगजींस में से एक थी फिल्म पत्रिका माधुरी. यह फिल्मों पर आने वाली ऐसी हिंदी पत्रिका थी, जिसमें बहुत सारी चीजें बहुत अलहदा किस्म की होती थीं. इसलिए मैं इसे रेगुलरली पढ़ता था, बिना कोई इश्यू मिस किए.

इसमें फिल्मी कलाकारों के इंटरव्यू भी होते थे. जिनके अंत में उनका पोस्टल एड्रेस लिखा होता था. मैं अक्सर उस एड्रेस पर उन्हें पोस्टकार्ड पर कुछ न कुछ लिखकर भेजा करता था. ज्यादातर उत्तर नहीं देते थे, लेकिन देने वालों की संख्या भी इतनी तो थी कि मैं कभी हतोत्साहित नहीं हुआ.
ऐसे ही एक अंक में रवीना का इंटरव्यू छपा. उस समय रवीना की डेब्यू फिल्म पत्थर के फूल आने वाली थी, जिसमें वे सलमान के अपोजिट थीं. मुझे रवीना का ताजगी से भरपूर सौंदर्य और बातों की ईमानदारी बहुत अच्छी लगी और मैंने एक पोस्टकार्ड पर एक कार्टून बनाकर उसके डायलाॅग बाॅक्स में सिर्फ चार शब्द लिखे ‘आई विश यू आॅन द टाॅप’ और इसे रवीना के पोस्टल एड्रेस पर भेज दिया.
जवाब की न मुझे उम्मीद थी और न इंतजार, फिर भी कुछ दिनों बाद एक लिफाफे की शक्ल में उनका जवाब आया तो मैं सरप्राइज्ड रह गया. उसमें सिर्फ एक फोटो था. फोटो भी ऐसा, जिसे देखकर लगता था, जैसे उन्होंने अपने निजी एलबम से निकालकर भेजा दिया हो. वर्ना तो इससे पहले जिन सितारों के फोटो मुझे मिले थे, वह देखने से ही प्रोफेशनल फोटोग्राफर्स द्वारा खींचे गए लगते थे. लेकिन इस फोटो के साथ ऐसा कुछ नहीं था.
फोटो की बैक पर देखा. रवीना ने कुछ लिखकर काटा हुआ था, जिसके नीचे मेरे लिए तीन पंक्तियां और उनके सिग्नेचर मौजूद थे. मैंने बहुत कोशिश की, कल्पनाओं के घोड़े दौड़ाए लेकिन आज तक जान नहीं पाया कि उन्होंने पहली लाइन में ऐसा क्या लिखा होगा, जिसे लिखकर काटने की जरूरत पड़ी. वो भी इस बुरी तरह से कि एक भी अक्षर न पढ़ा जा सके.
मैंने उनके टाॅप पर पहुँचने की कामना की थी, लेकिन इस विश के पूरा होने के लिए मुझे और रवीना को बहुत इंतजार करना पड़ा.
पहली ही फिल्म पत्थर के फूल की नाकामी ने उनके रास्ते को बहुत कठिन बना दिया, बावजूद इसके कि उनके साथ एक मजबूत फिल्मी बैकग्राउंड थी. आपको भी पता होगा कि उनके पिता रवि टंडन अपने वक्त के कामयाब फिल्मकार रहे हैं.
रवीना ऐसी अभिनेत्री थीं, जिन्हें उस समय के टाॅप कलाकारों के अपोजिट की जाने वाली फिल्में भी कामयाबी का स्वाद नहीं चखवा पा रही थीं. लेकिन तीन साल बाद उनकी तकदीर ने पलटी खाई और मोहरा के आइटम साॅन्ग ‘तू चीज बड़ी है मस्त-मस्त...’ ने उन्हें फिल्म दीवानों के दिल की धड़कन बना दिया... लेकिन, इसके अगले ही साल कल्पना लाजमी की मैरिटल वाॅयलेंस पर आधारित फिल्म दमन के लिए उन्होंने राष्ट्रीय पुरस्कार जीत कर अपनी ‘चीज’ वाली छवि के एकदम विपरीत खुद को एक बेहद सक्षम अभिनेत्री के रूप में स्थापित कर दिया. और तमाम कमर्शियल फिल्मों करते हुए भी सत्ता, अग्निवर्षा, शूल जैसी अलग किस्म की फिल्मों के जरिए इसे कायम रखे रहीं.
आज रवीना का जन्मदिन है, इस मौके पर उन्हें हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं. सालों बीत चुके हैं, पर मेरी जिज्ञासा अभी भी बनी हुई है. कभी उनसे मुलाकात हो पाई तो पूछूँगा जरूर कि उन्होंने उस कटी लाइन में क्या लिखा था.
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Friday, October 23, 2020

बातें—मुलाकातें : 25 (मार्क टल्ली)

एक दौर था, जब खबरों के लिए देश की जनता अखबारों के अलावा सिर्फ टीवी के समाचार बुलेटिन और आकाशवाणी की खबरों पर निर्भर रहा करती थी. दोनों पर सरकार का नियंत्रण था तो यह माना जाता था कि इन पर आने वाली खबरों पर भी सरकार का नियंत्रण रहता है. ऐसे में दो ही नाम लोगों की जुबां पर रहते थे एक तो बीबीसी और दूसरे मार्क ट्रुली... जिनके बारे में माना जाता था कि यहाँ खबर सबसे पहले आती है और सबसे भरोसेमंद होती है.



मार्क ट्रुली संभवत: देश के पहले ऐसेकॉरेसपॉन्डेंट थे, जिन्हें एक स्टार का दर्जा हासिल था. नवभारत टाइम्स के तत्कालीन फीचर प्रभारी विनोद  भारद्वाज जी से, मेरा सपना के लिए मार्क का इंटरव्यू करने की इजाजत लेकर मैंने मार्क को फोन किया. उन्होंने अगले दिन का वक्त दे दिया.

अगले दिन जब मैं खोजतेखोजते मार्क के निजामुद्दीन ईस्ट स्थित बंगले पर पहुँचा तो वहाँ नेम प्लेट पर हिंदी में मार्क टल्ली लिखा देखकर शॉक लगा. आज तक उनका नाम मार्क ट्रुली ही सुनतेपढ़ते आए थे. लेकिन उनका घर था तो नाम गलत होने की संभावना के बराबर थी. वैसे जानकारी के लिए बता दूँ कि उनका पूरा नाम सर विलियम मार्क टल्ली है.

बहरहाल, अंदर पहुँचा तो मार्क से मुलाकात हुई.  करीब तीन दशकों तक भारत में बीबीसी के पयार्य रहे मार्क टल्ली सेवानिवृत्त हो चुके थे और एक फ्रीलांस ब्रॉडकास्टर के तौर पर मीडिया से जुड़े थे.

एक स्टार पत्रकार होने के नाते उनमें काफी एटिट्यूड होगा, सोचा तो यही था लेकिन आशंका के विपरीत उनका व्यवहार बेहद सौम्य, ​मिलनसारिता से भरपूर था और चेहरा काफी हँसमुख शर्मीला.

उन्होंने कहा कि आप तो बहुत यंग हैं. मैंने कहा कि आप फिक्र करें, मैं उम्र में कम हूँ, लेकिन आपको निराशा नहीं होगी. तो उन्होंने झेंपते हुए कहा कि वे शिकायत नहीं तारीफ कर रहे थे.

इंटरव्यू शुरू हुआ. बहुत सारे सवालजवाब हुए. ​वे ब्रिटिश होते हुए भी किसी भी आम भारतीय जितनी ही भारतीयता से भरपूर थे.

उस समय इंडिया वर्सेज भारत का जुमला पैदा नहीं हुआ था, इसलिए जब उन्होंने कहा कि उनक ख्वाहिश हिंदुस्तान को फिर से भारत के रूप में देखने की है तो मैं चकित हुआ कि दोनों में फर्क क्या है. उन्होंने स्पष्ट किया कि भारत से उनका आशय ऐसे देश से है, जो पाश्चात्य संस्कृति का अनुसरण करते हुए अपनी संस्कृति पर गर्व करे और इतना प्रगति करे कि उसे किसी भी चीज के लिए दूसरों की ओर देखना पड़े, बल्कि दूसरे उसकी ओर देखें.

उनकी बहुत सारी बातों ने मुझे चकित किया, जैसे कि जवानी के दिनों में एक तरफ तो हर समय सेक्स और शराब के बारे में सोचते रहते थे और दूसरी तरफ एक पादरी बनने का सपना भी देखते थे. जो उनके शौकों की वजह से साकार नहीं हो पाया.

मैंने जब उनसे पूछा कि क्या उनके सपनों में भी सेक्स होता है तो उन्होंने कुछ कहने के लिए मुंह खोला फिर एकाएक संभल कर बोले कि मैं इस बारे में कुछ नहीं बताऊंगा, तुम पत्रकार लोग बहुत बदमाश होते हो.

खैर, उनके साथ एक बेहतरीन और बेहद संजीदा इंटरव्यू करने के बाद मुझे वह खुशी हासिल हुई जो बहुत कम लोगों के साथ हुई है. इंटरव्यू लिखकर जब मैं नवभारत टाइम्स ले गया तो वहाँ भी उनका सरनेम देखकर सबको बहुत हैरानी हुई कि कहीं मैंने गलती से ट्रुली को टल्ली तो नहीं लिख दिया. लेकिन, जब मैंने उनकी नेमप्लेट का हवाला दिया तो फिर उन्होंने भी इसे टल्ली ही छापा. शायद यह पहली बार था, जब किसी अखबार ने हिंदी में उनका नाम सही छापा था.

इंटरव्यू छपा, काफी सराहा गया. मार्क को बताने के लिए फोन किया तो उनकी पार्टनर ने फोन उठाया. उन्होंने कहा कि मार्क तो आउट आॅफ टाउन हैं, लेकिन जब उन्हें इंटरव्यू के बारे में बताया तो वह बोलीं कि मार्क रात को वापस आ जाएंगे. उन्होंने कहा कि उन्हें पता चल गया था और उन्होंने पेपर मंगा कर रख लिया था.

मार्क से दूसरी मुलाकात कुछ दिनों बाद हुई. इस बार मेरे साथ मेरे सहपाठी और अभिन्न मित्र अखिलेश शर्मा, जो अभी एनडीटीवी में पॉलिटिकल हेड हैं, भी थे. हम दोनों रेडियो के लिए यंगतरंग नाम की एक मैगजीन प्लान कर रहे थे. हम इसे विविध भारती को देना चाहते थे, लेकिन वहाँ पहले से युवमंच चल रहा था. इसलिए हमने सोचा कि मार्क से मिलकर देखते हैं, जो तब तक टाइम्स के एफएम चैनल से जुड़ चुके थे. हमें लगा कि शायद वे वहाँ इसे फिट करवा दें. मार्क का समय लेकर हम एक बार फिर उनके घर जा धमके. पहले की तरह इस बार भी वे बहुत प्यार और सहयोग भाव से पेश आए. मैगजीन की चर्चा चली, हमने उन्हें कॉन्सेप्ट नोट दिखाया तो उन्होंने बड़ी ईमानदारी से कहा कि आपके सारे आइडिया अलगअलग तो अच्छे हैं, लेकिन एक साथ बहुत हौचपौच हो रहा है. टाइम्स एफएम पर इसकी शुरुआत की गुंजाइश से उन्होंने इंकार कर दिया और बताया कि उनके सारे आॅपेशन बहुत मनीमाइंडेड होते हैं, इसलिए हमें आकाशवाणी पर ही कोशिश करनी चाहिए.

उनसे विदा लेकर हम मायूसी के साथ बाहर आ गए और यंग तरंग का आगे बढ़ाने का आइडिया वहीं ड्रॉप कर दिया. 

आज पद्मश्री व पद्मभूषण मार्क का 85 वां जन्मदिन है. हम उनके स्वस्थ व दीर्घ जीवन की कामना करते हैं. ऐसे दौर में, जब मीडिया की विश्वसनीयता शून्य से भी नीचे है, हम मार्क होने का महत्व समझ सकते हैं.

Image courtesy : By Chatham House - Flickr: Mark Tully, CC BY 2.0, https://commons.wikimedia.org/w/index.php?curid=28389727

Interview :



बातें—मुलाकातें: 24 (शिखा स्वरूप)

मेरे किए सर्वाधिक विचित्र साक्षात्कारों में से एक है, शिखा स्वरूप का. यह एक ऐसा साक्षात्कार है, जो होतेहोते रह गया था और न होतेहोते हो गया. इस बारे में आगे बढ़़ने से पहले जो शिखा स्वरूप को नहीं जानते, उनकी जानकारी के लिए बता देना जरूरी लग रहा है कि दूरदर्शन के रंगीन होने के बाद रामायण, महाभारत जैसे धारावाहिकों ने इनमें एक और रंग जोड़ दिया था, सुनहरा. इसी स्वर्णिम दौर में धूम मचा देने वाले धारावाहिकों में से एक था, नीरजा गुलेरी का चंद्रकांता. और चंद्रकाता में शीर्षक भूमिका निभाने वाली अभिनेत्री ​शिखा स्वरूप ही थीं. हालांकि मॉडलिंग और फैशन शो की दुनिया में उनका काफी नाम था. इस दौर में उन्होंने 400 से ज्यादा फैशन शो में हिस्सा लिया था. करीब दो दर्जन फिल्मों और धारावा​हिकों में भी वे लीड रोल में नजर आईं, लेकिन जो स्टारडम उन्हें चंद्रकांता ने दिया, वह ऐतिहासिक था.



1988 में आॅल इंडिया पिस्टल शूटिंग चैंपियनशिप में गोल्ड मैडल जीतने वाली और इसी साल शबनम पटेल के साथ मिस इंडिया इंटरनेशनल टाइटिल साझा करने वाली वाली शिखा स्वरूप ने 1991 में एक बार फिर यह टाइटिल अपने नाम किया. इसके अलावा नेशनल लेवल पर बैडमिंटन खेल चुकी हैं, लेकिन कुछ सेहत संबंधी दिक्कतों के कारण वह खेलों में कैरियर जारी नहीं रख सकीं.

 

बहरहाल, अब हम मूल विषय पर आते हैं. शिखा स्वरूप का मूल घर दिल्ली में ही था, इसलिए वे बीचबीच में दिल्ली आती रहती थीं. एक बार उनके आने का पता चला तो मैंने उन्हें कॉल किया और बताया कि मैं उनका इंटरव्यू करना चाहता हूँ. तब ग्लैमर की दुनिया में अखबारों की काफी इज्जत और अहमियत हुआ करती थी और नवभारत टाइम्स भी देश के लीडिंग हिंदी अखबारों में से एक था. उन्होंने कहा कि कल प्रगति मैदान में मेरा एक फैशन शो है, आप वहीं आ जाइए.

अगले दिन मैं तय वक्त पर प्रगति मैदान में उस हॉल में पहुँच गया. जहाँ उनका शो चल रहा था. अब चूंकि वह शो आमंत्रितों के लिए था, इसलिए मुझे भीतर जाने की इजाजत नहीं मिली. मेरी कम उम्र और दुबलेपतले शरीर की वजह से वहाँ कोई मानने को राजी नहीं हुआ कि मुझे शिखा स्वरूप ने बुलाया था. गेट पर खड़े गार्ड्स ने आॅर्गेनाइजर्स में से एक को बुलाया और मुझसे कहा कि इनसे बात कर लो. उस बंदे को भी मेरी बात समझ में नहीं आई तो मैंने एक स्लिप पर अपना नाम लिखकर उन्हें दिया कि आप शिखा जी को दे दीजिए तो उसे लगा कि मैं शिखा का आॅटोग्राफ लेने आया हूँ. उसने पर्ची जेब में रखा ली और बोला कि शो खत्म होने का वेट करिए, उसके बाद ही मिलवा सकते हैं.

मेरा धैर्य जवाब दे गया और मैं 'बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले...' वाले अंदाज में वहाँ से वापस आ गया. गुस्सा तो शिखा पर भी बहुत आ रहा था कि अगर उसने मुझे वहाँ बुलाया था तो गेट पर बता देना चाहिए था कि मुझे अंदर आने दिया जाए. अगले दिन सुबहसुबह इस बात की शिकायत करने के लिए मैंने उन्हें फोन किया तो वह मेरा नाम सुनते ही खुद ही शिकायत करने लगीं कि उन्होंने मेरा इंतजार किया और मैं वहाँ नहीं पहुँचा. मैंने उन्हें सारी बात समझायी तो उन्होंने इसके लिए अफसोस जाहिर किया. उसी दिन वे वापस मुंबई जाने वाली थीं और दिल्ली आने के अगले प्रोग्राम का कुछ पता नहीं था. तो यह तय हुआ कि फोन पर ही इंटरव्यू कर लिया जाए.

इंटरव्यू शुरू हुआ, बड़ा लंबा चला. मेरा सपना की बातचीत खत्म हुई तो मैंने सोचा ​कि साथसाथ एक सामान्य इंटरव्यू भी कर लिया जाए. मैं पूछता गया और वह बताती गईं. मैंने महसूस किया कि कई सवालों के जवाब वे बहुत बेफिक्री से दे रही थीं, जिनके छपने पर उन्हें असुविधा हो सकती थी. मैंने इंटरव्यू के बाद शिखा से कहा भी कि आप बहुत ईमानदार हैं. उन्होंने पूछा कि कैसे? तो मैंने उन्हें उनके एकदो जवाबों का उदाहरण दिया. वह बोलीं कि आप लिखते समय ध्यान रख लीजिएगा कि कुछ गलत न छप जाए. मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि वह चिंता न करें. फिर मैंने उनसे कहा कि आप अपने फोटो भिजवा सकती हैं क्या? वह बोलीं कि एड्रेस लिखवा दीजिए, मैं कूरियर करवा देती हूँ. मैं एड्रेस लिखाने लगा तो वह इतना लंबा था कि शिखा लिखतेलिखते थक गईं और बोलीं कि बाप रे, ये पता है या चिट्ठी.

खैर, दोनों इंटरव्यू हाजिर हैं. आप चाहें तो पढ़ सकते हैं और आज शिखा के जन्मदिन पर उन्हें बधाई और शुभकामनाएं भी दे सकते हैं.

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