Tuesday, August 18, 2020

बातें- मुलाकातें: 10 (गुलजार)

हर व्यक्ति का मिजाज अलग होता है, सोच अलग होती है, प्राथमिकताएं अलग होती हैं. अगर हम किसी व्यक्ति को अपने अनुरूप नहीं पाते तो यह उसकी शख्सियत का नहीं, बल्कि हमारी तंगनजरी का कसूर होता है.

आज मैं बात कर रहा हूँ, गुलजार साहब की. वह एक जाने-माने गीतकार, लेखक, कवि, निर्देशक हैं और शब्दों के साथ प्रयोग करने में उन्होंने जो महारत हासिल की है, वह अपने आप में बेजोड़ है. मैं बचपन से उनकी कविताओं का जबर्दस्त प्रशंसक रहा हूँ, और कविता लिखते हुए शब्दों को पिघलाने की कोशिश करते हुए उन्हें ही याद करता हूँ और पाता हूँ कि उनकी इस विलक्षण प्रतिभा का एक प्रतिशत भी मैं अपनी कविता में डाल पाता हूँ तो खुद ही अपनी कविता का सैदाई बन जाता हूँ. 

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, चश्मे और क्लोज़अप

लेकिन, उनसे हुई दो-तीन मुलाकातों का मुझ पर ऐसा असर पड़ा कि कभी भी मैं एक अच्छे इंसान के रूप में उनका आदर नहीं कर पाया. उनके मगरूर व्यवहार की वजह से मैं उनसे एक लंबे समय तक खफा रहा हूँ. उनकी आलोचना सुनकर खुश हुआ हूँ, उनकी शिकस्त से सुकून महसूस किया है. यहाँ तक कि उनके नाम के साथ साहब सफिक्स के इस्तेमाल में भी मेरी जुबान और कलम दोनों को बड़ा संकोच होता रहा है.

मेरी उनसे मुलाकात साहित्य अकादमी के एक फेस्टिवल में हुई थी, जिसका विषय साहित्य और सिनेमा का संबंध था. तीन दिन चलने वाले इस फेस्टिवल के पहले ही दिन मेरी नजर गुलजार साहब पर पड़ी. मैं उनके पास जा पहुँचा और इंटरव्यू के बारे में बताते हुए उनसे टाइम माँगा. उन्होंने कहा कि कितना वक्त लगेगा. मैंने कहा कि पाँच से दस मिनट. इस पर उन्होंने बहुत कुटिलता से मुस्कराते हुए कहा कि पाँच मिनट तो बहुत ज्यादा हो जाएगा, और फिर किसी से बातों में मशगूल हो गए. इसके बाद इस समारोह के दौरान मेरा कई बार उनसे आमना-सामना हुआ और हर बार मैंने उन्हें किसी न किसी से गप लड़ाते हुए देखा. मैं यह नहीं समझ पाता था कि मुझे इंटरव्यू के लिए पाँच मिनट देना उन्हें बहुत ज्यादा लग रहा था. मेरा मन खट्टा हो गया, और इस बात से और ज्यादा कि मेरा सपना काॅलम के लिए उनका जो इंटरव्यू मैं करना चाहता था, वही इंटरव्यू उन्होंने किसी और को दिया, जो कि नभाटा में छपा भी. हालांकि यह मेरी गलती थी, उन्हें पूरा हक था इंकार करने का और यह तय करने का कि वे किसे समय दें, किसे नहीं. लेकिन, उस समय मैं इसे अपनी बेइज्जती मानकर उनसे रुष्ट हो गया और कई साल तक इस बात को दिल में पाले रहा. 

इसके कुछ दिन बाद एक और ऐसा वाकया हुआ, जिसने मुझे उनकी बेरुखी और मगरूरियत को लेकर अपनी राय पुख्ता करने की नई वजह दे दी. एक दिन सुबह-सुबह उनकी किताब पुखराज या शायद मेरा कुछ सामान की रिलीज थी. मैं इस कार्यक्रम में पहुँच गया. वहाँ गुलजार साहब भी थे. उन्होंने कुछ कविताओं का पाठ किया. उनकी धीर-गंभीर आवाज में कविताएं सुनना वाकई एक अविस्मरणीय अनुभव था, लेकिन मैं तो नाराज था तो इस बात को सराह कैसे सकता था. रही-सही कसर उनकी एक टिप्पणी ने पूरी कर दी. हुआ ये कि एक कविता सुनकर एक श्रोता ने पूछा कि क्या यह आपने राखी जी के लिए लिखी है. इस पर गुलजार साहब ऐसे बिगड़े, जैसे कि उसने उन्हें गाली दे दी हो. उन्होंने उसे कठोर स्वर में जो कहा, वह शब्दशः तो मुझे याद नहीं, लेकिन उसका मतलब यही था कि वह सिर्फ कविता सुने, बाल की खाल न निकाले. 

इस बात को सालों बीत गए, गुलजार साहब के बारे में मेरी राय जस का तस रही. एक दिन मैंने उनका इंटरव्यू पढ़ा, जिसमें उन्होंने कहा कि उनकी बेटी मेघना एक प्रोड्यूसर से मिलने गई तो उसने चार घंटे उससे रिसेप्शन पर इंतजार कराया. गुलजार साहब का यह भी कहना था कि जब मेरे जैसे व्यक्ति की बेटी के साथ यह व्यवहार होता है, तो नए लोगों के साथ किस तरह का व्यवहार होता होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है. मुझे इस वाकये को पढ़कर एक पैशाचिक किस्म की संतुष्टि महसूस हुई कि अब ऊंट पहाड़ के नीचे आया. जब खुद पर पड़ी तो नए लोगों की भावनाओं का ख्याल आया. खुद के पाँच मिनट भी बहुत कीमती लग रहे थे.

आज जब सोच में परिपक्वता और खुलापन आया है तो अपने इस दुराग्रह को लेकर शर्मिंदगी सी महसूस होती है. 

मेरी उनके बारे में राय चाहे जो रही हो, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि वे आज भी हिंदी सिनेमा की सबसे विलक्षण प्रतिभाओं में शामिल हैं, बल्कि ऐसी पूंजी हैं, जिस पर पूरी इंडस्ट्री को फख्र करना चाहिए.

आज उनका जन्मदिन है, दिली बधाई के साथ मैं कामना करता हूँ कि उनकी जादुई कलम हमेशा हमें यूंही शब्दों के तिलिस्मी संसार की सैर कराती रहे.


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