Saturday, March 17, 2012

दबंग बीबियों की दुनिया

हकीकत में हमारे देश में स्त्रियों की चाहे जो दशा हो, लेकिन विज्ञापनों की दुनिया में उसकी छवि बहुत तेजी से बदल रही है. सिनेमा और सोप ओपेराज में बेशक वह अभी भीडॉल याआइडोल की स्टीरियोटाइप इमेज में कैद हो, लेकिन विज्ञापनों की औरत इस ककून को तोड़कर बेहद कॉन्फिडेंट और अपनी डिग्निटी को लेकर बहुत कॉशस नजर आने लगी है. इन विज्ञापनों में चाहे वह किसी भी भूमिका का निर्वहन कर रही हो, लेकिन अपनी अस्मिता से कोई समझौता उसे स्वीकार नहीं है. यह कुछ साल पहले तक छोटे पर्दे के विज्ञापनों पर हावी उस दौर के एकदम उलट है, जब वह किचेन में खाना पकाने या बाथरूम में कपड़े धोने के अलावा कोई और काम करते नजर ही नहीं आती थी.
खासकर, विज्ञापनों में दिखने वाली बीबियों के एटिट्यूड में तो जबर्दस्त क्रांतिकारी बदलाव आया है. अगर आपको बरसो पुराना वह विज्ञापन याद है, जिसमें एक दुकानदार अपने ग्राहक को राय देता है कि अगर वह अपनी बीबी को सचमुच प्यार करता है, तो उसे एक खास ब्रांड का कुकर खरीदना चाहिए. लेकिन, अब प्यार को साबित करने के लिए सिर्फ इतना भर काफी नहीं है. आज की विज्ञापन-नायिका हर चीज में बराबरी का हक मांगती नजर आती है. कहीं वह अपनी पसंद का सीरियल न देखने देने पर सजा के तौर पर उसे ऑफिस में लंच के लिए खाली टिफिन थमा देने या लिफ्ट की बजाए सीढि़यों से जाने के लिए मजबूर कर देने का दम रखती है तो कहीं वह उसके आग्रहकी परवाह न करते हुए अपने थ्रीजी के साथ बिजी नजर आती है. ऐसे बहुत सारे विज्ञापन आप इन दिनों देख सकते हैं, जिनमें नारी घर-परिवार पर अपनी हुकूमत का झंडा फहराती नजर आती है. घर और पति पर वह दबदबा जरूर बनाकर रखती है, लेकिन दादागिरी नहीं चलाती.
यह सही है कि वह अर्धांगिनी से स्वामिनी में बदल गई है. लेकिन, इसका अर्थ यह नहीं कि उसकी भूमिका सिर्फ अधिकार और बागडोर हासिल कर लेने तक ही सीमित है. वह सिर्फ परिवार के हाथों में थामी डोरियों से बंधी कठपुतली के खोल से बाहर आई है, अपने दायित्वों के नहीं. जितनी सजग वह एक गृहिणी के रूप में अपने अधिकारों को लेकर है, उतनी ही अपनी जिम्मेदारियों को लेकर भी है. वह देश की हालत पर खिन्न अपने पति को सोच बदलकर देश बदलने का गुरुमंत्र दे सकती है, ओवरवेट हो जाने पर उसके जन्मदिन पर उसे एक पर्सनल ट्रेनर गिफ्ट में दे सकती है. वह अपनी पसंद के साथ-साथ अपने पति और बच्चों का भी पूरा ख्याल रखती है. एक वित्तीय संस्थान के विज्ञापन में वह खर्चीले पति को खर्च से रोकती नजर आती है, ताकि उनके भावी बच्चे का भविष्य सुरक्षित रहे. यही नहीं, पति के लिए एक दोस्त की भूमिका निभाने में भी वह पीछे नहीं है. वह उसके साथ आंख-मिचोली खेलते हुए शरारतन अपनी बूढ़ी गवर्नेंस को उसके सामने लाकर खड़ा कर सकती है, उससे छुआछुई खेल सकती है और मोच आने पर उससे सिर्फ एक प्रेमासिक्त स्पर्श की अपेक्षा करती है. एक सच्ची सहचरी की तरह वह हर जरूरत के वक्त उसके साथ है.
इन्हीं विज्ञापनों के बीच के खाली स्लॉट में जब आप कोई ऐसा सास-बहू कार्यक्रम देखते हैं, जहाँ वह या तो साजिशों से बचने में मशगूल है या साजिशें रचने में तो आप इन विज्ञापनों को याद करके सुकून की सांस ले सकते हैं कि कोई तो जगह है, जहाँ एक हिंदुस्तानी बीवी को उसके सही रूप में पेश करने की ईमानदार कोशिश की जा रही है.
-संदीप अग्रवाल