Friday, June 8, 2012

पिताजी की पतलून


इन दिनों एक विज्ञापन काफी लोकप्रिय हो रहा है, जिसमें रमेश और सुरेश पिताजी की पतलून छोटा कराने जाते हैं और चाकलेट के स्वाद में कुछ ऐसे खो जाते हैं कि पतलून को बार-बार छोटा कराते जाते हैं और वह छोटी होते-होते निकर में तब्दील हो जाती है. कुछ ऐसी ही हालत टेलीविजन विज्ञापनों की भी हो गई है. कोई भी विज्ञापन जब नया होता है, तो बहुत लंबा होता है. लेकिन बाद में, खर्च बचाने के लिए उसे एडिट करके मूल विज्ञापन से काफी छोटा कर दिया जाता है.

कई बार तो यह एडिटिंग इतनी बेरहम हो जाती है कि बेसिक आइडिया को ही नष्ट कर देती है. जैसे कि एक विंटर वियर के एड के मूल एडिशन में पूरी कहानी दिखाई जाती थी, जिसमें बिस्तर पर लेटा एक असहाय बूढ़ा, उसके पास बैठा विकलांग बेटा, किसी तूफान की तरह दरवाजा भीतर गिराकर प्रवेश करते उसके सर्दी पीडि़त सगे-संबंधी, बिस्तर से उतारकर पलंग को आग के हवाले करके गर्मी का सुख लेते सभी परिवारजन, कल की चिंता की अभिव्यक्ति होते ही अपनी बैसाखी को पीछे छिपाता विकलांग बेटा...ये एक मुकम्मल कहानी थी, जिसे जब संपादित रूप में प्रदर्शित किया गया तो उसका एक बड़ा हिस्सा इस तरह कट चुका था कि समझ में ही नहीं आता था कि असल माजरा क्या है.

ऐसे अनेक एड हैं, सैफ की बड़े आराम से सीरीज के एक एड में वह नवाब साहब के कत्ल के सभी संदिग्धों से एक-एक कर पूछते हैं कि कत्ल के वक्त वह क्या कर रहा था...और जब वह हताश हो उठते हैं तो नवाब साहब उठकर कहते हैं कि उनका कत्ल किसने किया. जब यह विज्ञापन छोटा हुआ तो सैफ की एंट्री और नवाब साहब से कातिल का नाम बताने की गुजारिश के जवाब में नवाब साहब के कातिल की ओर इशारा करने के बीच कुछ छूटा सा साफ नजर आता है. क्योंकि इसमें सिर्फ जासूस, मकतूल और कातिल हैं...संदिग्ध एक भी नहीं. इसी तरह रमेश-सुरेश के पहले विज्ञापन में, जिसमें वे एक दुकान पर मिलते हैं, तीन हिस्से थे, बाद में बीच का हिस्सा निकल जाने के बाद दो ही रह गए.

बार-बार मंदी के मुहाने पर पहुँचती दुनिया में विज्ञापनदाताओं की मजबूरी समझी जा सकती है. जब पैसा कम होगा तो पतलून की जगह निकर से काम चलाना पड़ता है. लेकिन, अब तो टांगें ही छोटी करने की कवायद शुरू हो गई है. ट्राई के नए दिशा-निर्देशों के मुताबिक अब टेलीविजन चैनल एक घंटे में बारह मिनट से ज्यादा विज्ञापन नहीं दिखा सकेंगे. यही नहीं, दो कमर्शियल ब्रेक्स के बीच का फासला भी तय कर दिया गया है, जो फिल्मों के बीच कम से कम आधा घंटा और सीरियल्स आदि के बीच कम से कम पंद्रह मिनट का होगा. इससे दर्शक को कितनी राहत मिलेगी और चैनलों का कारोबार कितना प्रभावित होगा, इस बारे में कुछ कह पाना मुश्किल है. पर  पहली संभावना जिस बात की नजर आ रही है, वह यह है कि विज्ञापनों के लिए टाइम स्लॉट  कम होने के बाद चैनल विज्ञापनों की दरें बढ़ा सकते हैं. आखिर उन्हें भी तो ‘सरवाइव’ करना है.

हालांकि अभी भी अधिकांश चैनल के पास विज्ञापनों का टोटा ही है. आपने कई चैनलों पर महसूस किया होगा कि अनेक चैनलों पर एक ही विज्ञापन एक ही ब्रेक में 5-6 बार से भी ज्यादा दिखाया जा रहा होता है. लेकिन, कोई भी चैनल शायद ही इस बात को स्वीकार करेगा कि कुछेक विज्ञापनों को बार-बार दिखाने के पीछे उसे कम विज्ञापन मिलना एक बड़ी वजह है. ऐसे में अगर चैनल रेट बढ़ाते हैं, तो विज्ञापनदाताओं के सामने भी अपने विज्ञापनों की लंबाई कम करने के सिवा कोई चारा नहीं रहेगा. इसका असर कहानी पर पड़ना लाजमी है. अब देखना यह है कि कौन विज्ञापनदाता पुरानी कहानी को आधा-अधूरा दिखाकर पैसा बचाते हैं और कौन बदली हुई समयावधि के हिसाब से नई कहानियां पेश करने की जहमत उठाना गवारा करते हैं.

वर्ना तो यह भी हो सकता है कि अगली बार सैफ जब एड का वक्त कम हो जाने का हवाला देते हुए नवाब साहब से खुद ही कातिल का नाम बताने की गुजारिश करें तो नवाब साहब उनके हाथ से बनियान लेकर बोलें  कि रहने दो सैफ, मैं ही स्क्रीन पर बनियान की तारीफ कर देता हूँ... तब तक तुम करीना के साथ शादी की शॉपिंग कर आओ...