Sunday, March 21, 2021

बातें-मुलाकातें: 51 (खुशवंत सिंह)

जिंदगी जिंदादिली का नाम है... आपने यह शेर जरूर सुना होगा. लेकिन अगर इस शेर को मूर्त रूप में देखना हो तो विख्यात अंग्रेजी लेखक व पत्रकार खुशवंत सिंह से बेहतर इसकी मिसाल शायद ही कोई मिले. जिन्होंने न सिर्फ पूरा जीवन जिंदादिली के साथ जिया, बल्कि ताजिंदगी बादानोशी और खिदमत-ए-हुस्न के बावजूद अपना सौवां जन्मदिन मनाने के बाद ही इस दुनिया से रुखसत ली.


खुशवंत सिंह की जिंदादिली का परिचय तो मुझे उनसे पहली ही मुलाकात में मिल गया. जब मैं उनके दिल्ली के खान मार्केट के पास सुजान सिंह पार्क स्थित उनके निवास स्थान पर पहुँचा. सुजान सिंह पार्क, दिल्ली का पहला अपार्टमेंट कॉम्प्लेक्स है, जिसे उनके पिता जी सरदार शोभा सिंह ने बसाया था और उनके पिता सरदार सुजान सिंह का नाम दिया था.

उनके घर के प्रवेश द्वार पर मेरा स्वागत उनकी सुरक्षा के लिए तैनात ब्लैक कमांडोज ने किया. लेकिन, जब मैंने उनसे बताया कि खुशवंत सिंह जी से मेरा अपाइंटमेंट है तो उन्होंने बिना हील हुज्जत के मुझे अंदर भेज दिया.
अपने नाम के अनुरूप ही खुशमिजाज सरदार खुशवंत सिंह जी अपनी विशाल काया के साथ आर्मचेयर पर आराम फरमा रहे थे. मेरे नमस्ते के जवाब में उन्होंने मुझे अपने सामने बैठने का इशारा किया. फिर पूछा, आप क्या लेंगे? गर्म या ठंडा?
‘सिर्फ सादा पानी...’ मैंने जवाब दिया.
‘सादा पानी तो इस घर में नहीं मिल पाएगा आपको....’ उन्होंने जिस शरारती मुस्कान के साथ यह बात कही, वह आज भी मेरे जेहन में ताजा है. यह उनकी हाजिरजवाबी और बेबाकी से रूबरू होने का मेरा पहला निजी अनुभव था, जिसके बारे में अब तक सिर्फ सुना-पढ़ा ही था.
उन्होंने खस का शर्बत मँगा लिया और इसकी मिठास और उनकी चटपटी बातों ने उस पूरी मुलाकात को बेहद यादगार बना दिया.
मैंने उनसे उनके सपनों, डर, अधूरी इच्छाओं, सेक्सुअल फेंटेसीज वगैरह के बारे में बहुत सारी बातें की और उन्होंने बहुत खुलेपन से इनके जवाब दिए. उनके इस इंटरव्यू को मैं अपने किए बेहतरीन इंटरव्यूज में से एक मानता हूँ.
उन्होंने बताया था कि वे सबसे बड़े लेखक बनना चाहते थे, लेकिन सबसे बड़े तो नहीं, पर सबसे ज्यादा कमाने वाले लेखक जरूर बने.
इंटरव्यू खत्म होने के बाद मैंने उनसे एक अच्छा राइटर बनने के लिए कुछ मार्गदर्शन करने के लिए कहा. उन्होंने कहा कि आप धार्मिक पुस्तकें बहुत पढ़िए, जितनी ज्यादा से ज्यादा रिलीजियस बुक पढ़ सकते हैं, पढ़िए. हालाँकि आप सोच रहे होंगे कि मैं नास्तिक होते हुए भी आपको धर्म की किताबें पढ़ने के लिए क्यों कह रहा हूँ, लेकिन इनसे आपके रिफ्रेंस बहुत मिलते हैं, जो आपके लेखन को दिलचस्प बनाते हैं.
उनका दूसरा सुझाव था कि लोगों को पढ़ना सीखिए क्योंकि हर आदमी खुद में एक भरी-पूरी किताब होता है. अगर आप यह आदत डाल लेंगे तो सारी जिंदगी सभी से कुछ न कुछ सीखते रह सकते हैं. उनकी यह बात सुनकर मुझे उनके वीकली कॉलम न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर की याद आ गई, जिसमें वे बड़े-बड़े लोगों के साथ अपने निजी अनुभव साझा किया करते थे.
उनके क्रांतिकारी विचारों और बेबाक टिप्पणियों से वे आए दिन विवादों से घिरे रहते थे. पुरस्कार लौटाने का चलन जो हमें आज देखने को मिल रहा है, उसकी शुरुआत खुशवंत सिंह जी 1984 में ही कर चुके थे, जब उन्होंने दस साल पहले मिले अपने पद्मभूषण सम्मान को ऑपरेशन ब्लू स्टार के विरोध में लौटा दिया था. हालांकि 2007 में भी उन्हें पद्मविभूषण सम्मान मिला, जो भारत रत्न के बाद दूसरा सबसे बड़ा सिविल अवार्ड है.
मृत्यु से भय का अनुभव न करने वाले खुशवंत सिंह इसे एक उत्सव के रूप में देखते थे. उन्होंने तीस साल की उम्र में ही अपनी श्रद्धांजलि लिखकर रख ली थी. आज खुशवंत सिंह जी की सातवीं पुण्यतिथि है. इस मौके पर उनका पुण्यस्मरण और भावभीनी श्रद्धांजलि. उनके जैसी शख्सियत और जिंदगी बहुत लोगों को हासिल होती है.



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