Monday, March 15, 2021

बातें—मुलाकातें : 50 (कार्टूनिस्ट काक)

ऐसे समय में जब उनके दौर के कार्टूनिस्टों की लगभग पूरी पीढ़ी शांत या निष्क्रिय है, काक जी ने न अपनी ऊर्जा को कभी क्षीण नहीं होने दिया है और न ही अपने कार्टूनों की धार को. आज अस्सी साल की उम्र में भी वे नियमित रूप से कार्टून बनाते हैं और उतनी ही ​निष्ठा से जीवन की विसंगतियों पर टिप्पणी करते हुए समाज और लोगों के प्रति अपना दायित्व निभा रहे हैं. 





पत्रकारिता के अपने दो दशक के कैरियर में एक से एक बेहतरीन हस्ती से मिलने का मौका मिला है मुझे, लेकिन यहाँ जिस हस्ती की बात मैं करने जा रहा हूँ, उनसे मेरे पत्रकारिता में कदम रखने से काफी पहले परिचय हुआ था. हुआ ये था कि दिल्ली से प्रकाशित संडे ऑब्जर्वर ने ‘ वह किताब, वह किरदार’ नाम से एक ऐसा स्तंभ शुरू किया था, जिसमें पाठक अपनी पढ़ी किसी भी किताब से एक पसंदीदा किरदार चुनकर उसके बारे में अपनी राय लिखकर भेज सकते थे. लेखन के शौक, और अलग तरह की चीजें सोचने के शगल ने मुझे इस स्तंभ में हिस्सा लेने के लिए प्रेरित किया. 

अब सवाल था कि ऐसे किसी किरदार का चयन, जो जरा हटकर हो...बहुत सारे किरदार दिमाग में आए, भारती जी के चंदर और माणिक मुल्ला से लेकर भगवती बाबू की चित्रलेखा तक, इंद्रजाल कॉमिक्स के बेताल से लेकर सर डायल के शरलक होम्स तक...लेकिन, फिर ख्याल आया कि किताबी किरदारों पर तो सभी लिख रहे हैं, क्यों न किसी ऐसे किरदार के बारे में लिखा जाए, जो किताबों से इतर दुनिया से ताल्लुक रखता हो...और इस हर दिल अजीज बुड्ढे पर नजर पड़ गई. 

नवभारत टाइम्स में छपने वाले कार्टूनिस्ट काक के इस किरदार के कद्रदानों में मेरे जैसे बहुत सारे दोस्त शामिल थे, और इन पर रोजाना ऐसे ही चर्चा करते थे, जैसे कि आजकल अपनी फेवरेट फिल्मों या वेबसीरीज की होती है. तो पिछले कुछ महीनों के पसंदीदा कार्टूनों को याद किया और इस गुदगुदाते किरदार पर एक लेख लिख डाला...अब ख्याल आया कि काश इसमें काक जी का बनाया कार्टून और उनकी इस किरदार के बारे में राय भी शामिल हो जाए तो मजा आ जाए...किशोरावस्था का उत्साह और उच्छृंखलता, उस समय किसी भी बडी से बडी हस्ती से अपनी बात कहने में हिचक महसूस नहीं होने देती थी तो उठाया एक पेपर और काक जी को अपने लिखे लेख की फोटोकॉपी के साथ उनसे एक कार्टून बनाकर देने का और ऐसी कुछ जानकारियां देने का अनुरोध किया, जो उनके ख्याल से मुझसे छूट गई हो सकती थीं...कुछ ही दिनों में जवाब आ गया, जो काक की चिरपरिचत कार्टूनिया अंदाज में ही था. कार्टून भी भेजा और मेरे सवालों का जवाब भी- जिसमें उनके मुख्य किरदार बुढ़ऊ को कहते हुए दिखाया गया था कि 'यार जितना जानते हो मेरे बारे में, उतना तो मुझे भी नहीं मालूम...'

यह कार्टून आज सालों बाद भी मेरे पास महफूज है. कुछ साल हुए, फेसबुक पर काक जी का प्रोफाइल देखा तो इस पत्र व्यवहार और बाद में दिल्ली में रहते हुए काक जी से नवभारत टाइम्स में हुई अनेक आत्मीय मुलाकातों की यादें ताजा हो आईं. 

मैं जब भी नवभारत टाइम्स में जाता, उनसे जरूर मिलता था. और वे स्नेह से बिठलाकर न सिर्फ बातें करते थे, बल्कि चाय भी पिलाया करते थे. पिछले साल काक जी से एक बार फिर इस किरदार के जन्म और विकास यात्रा के विषय में जानने की कोशिश की. इस उम्मीद में कि शायद इस बार कुछ नई जानकारी हासिल हो जाए और अच्छी बात यह रही कि इस बार उन्होंने इसके बारे में मुझे दिल खोलकर बताया. 

अगर इसका जन्मदिन तलाशा जाए तो कौन सी तारीख ज्यादा प्रमाणित लगेगी? मैंने पूछा.

''कुछ भी मान लीजिये. 18 - 09 - 1974, 'आज' कानपुर में. तब स्व. विनोद शुक्ल स्थानीय सम्पादक थे. वनारस से उसकी फक्कड़ी वेशभूषा को लेकर बड़ी आपत्ति आई. तब स्व. सत्येन्द्र कुमार गुप्त प्रधान सम्पादक थे. वह नहीं चाहते थे कि विपन्न कैरेक्टर अखबार के मुखपृष्ठ पर आए. मैं अड़ गया कि यह नहीं तो मैं भी नहीं.खैर, विनोद जी ने मामला सँभाला. 

बुढ़ऊ और उनकी दुनिया ने अथाह प्यार दिलाया लगभग पूरे देश से. बाकी चीजें मेरे लिये गौण हो गईं. मैं खुद भी. वह नहीं तो मैं नहीं. रखो अपना अपने पास. बुढ़ऊ को कुछ नहीं चाहिए. किसी से भी. 

आज, जागरण, दिनमान, राजस्थान पत्रिका जैसे प्रतिष्ठित पत्रों में नियमित स्तंभ के रूप में प्रकाशित होते हुए यह अज्ञेय जी के  संपादन काल में, उन की प्रेरणा से नवभारत टाइम्स में आना शुरू हुआ. बाद में जनसत्ता, फिर से नवभारत टाइम्स में न केवल खुद बल्कि भौजी, जमादारिन, मौलाना वगैरह के साथ अपनी दुनिया बसा ली.'' काक जी ने बताया.

कभी भी दो श्रेष्ठ रचनाओं की तुलना नहीं करनी चाहिए, लेकिन निजी तौर पर मुझे ऐसा लगता है कि काक का आम आदमी किसी भी दृष्टि से लक्ष्मण के कॉमन मैन से कम नहीं है. बल्कि आम आदमी के दर्द और सामाजिक विसंगतियों का मूक दर्शक न बने रहकर, निर्भीकता से उस पर अपनी मुखर टिप्पणी देने की वजह से जनता के ज्यादा बड़े वर्ग की आवाज को अभिव्यक्ति देता है. उनका बुड्ढा , कॉमन मैन की तरह इलीट मिडिल क्लास का नहीं, बल्कि भदेस हिंदुस्तानी का प्रतीक है, जो तकलीफ होने पर कराह सकता है, नाराज होने पर गुस्सा जाहिर कर सकता है, दुखी होने पर रो सकता है. संक्षेप में कहें तो इन दोनों में वही फर्क है, जो इंडिया और भारत में है.

आज भारतीय कार्टूनों की समृद्ध परंपरा के वाहक हरीश चंद्र शुक्ल यानी काक, 81 साल के हो गए हैं. बधाई के साथ हम कामना करते हैं कि वे हमेशा स्वस्थ रहें, सक्रिय रहें और उनकी ऊर्जा व धार सतत् बनी रहे.




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