Friday, October 9, 2020

बातें—मुलाकातें: 23 (जगजीत सिंह)

जगजीत सिंह को चाहे आपने कैसेट के जरिए सुना हो या कंसर्ट में, उनकी रेशमी आवाज में आपको कभी कोई फर्क महसूस नहीं हुआ होगा. आप आँखें बंद करके जगजीत को सुनेंगे और तसव्वुर करेंगे तो आपको ऐसा लगेगा कि सिल्क का कुर्ता पहने और पशमीने की शॉल ओढ़े जगजीत वहीं आपके सामने मौजूद अपनी आवाज का जादू बिखेर रहे हैं.

लेकिन तसव्वुर और हकीकत में काफी फर्क होता है. जगजीत से वास्तविक जीवन में मिलना मेरे लिए एक हतप्रभ कर देने वाला अनुभव रहा है. 

जैसे एमआर सुबह से ही तलाश में लग जाते हैं कि आज किस डॉक्टर के यहाँ धावा बोला जाए, वैसे ही फ्रीलांस जर्नलिस्ट भी यही खोजते रहते हैं कि आज क्या स्टोरी हो सकती है. मैं इंटरव्यू किया करता था, इसलिए अखबारों पर बराबर नजर रहती थी कि कब कौन सी सेलिब्रिटी दिल्ली में है. उनके कार्यक्रमों के विज्ञापन छपते थे तो उनमें आॅफिशियल होस्ट का लोगो भी साथ होता था. इससे पता चल जाता था कि फलां शख्स फलां होटल में ठहरा हुआ है.

एक दिन ऐसे ही मैंने अखबार में जगजीत सिंह नाइट का विज्ञापन देखा. आॅफिशियल होस्ट देखा तो पता चला कि वह दिल्ली के रामकृ​ष्णपुरम स्थित होटल हयात, शायद अब उसका नाम बदल चुका है, में ठहरे हुए हैं. होटल फोन लगाया. जगजीत जी से कनेक्ट होने पर मैंने उन्हें बताया कि मैं नवभारत टाइम्स के लिए उनका इंटरव्यू करना चाहता हूँ. उन्होंने शाम के पाँच बजे का टाइम दिया.



मेरे पास उस समय तक 'मेरा सपना' के आठदस कॉलम प्रकाशित होकर इकट्ठा हो चुके थे तो मैं अक्सर जिसका इंटरव्यू करने जाता, उनकी कॉपी साथ ले जाता ताकि उन्हें समझाना आसान हो जाए कि उनके साथ इंटरव्यू किस तरह का होने वाला है. जगजीत सिंह के पास जाते हुए भी मैंने नमूने अपने साथ ले लिए और पाँच बजे हयात पहुँच गया. रिसेप्शन पे जाकर मैंने उन्हें बताया कि मैं जगजीत सिंह जी का इंटरव्यू करने आया हूँ. उन्होंने इंटरकॉम से उनके कमरे में फोन करके बताया. फिर मुझे कहा कि आप लॉबी में बैठिए, वो दस मिनट में आपको बुलाते हैं. मैं जाकर एक कोने में सोफे पर बैठ गया. 

यहाँ से मेरे एडवेंचर की शुरूआत हुई. दस मिनट बीते, पंद्रह मिनट बीते और जब बीस मिनट हुए तो मेरा सब्र जबाब दे गया. मैंने फिर से रिसेप्शन पर जाकर अपनी माँग दोहराई. इस बार उन्होंने मेरी बात कराई तो जवाब मिला कि होटल का अटेंडेंट तो देखकर गया, उसे आप नहीं मिले.

उन्होंने मुझे फिर से बैठने को कहा और मैं उसी जगह पर जाकर बैठ गया. पाँच मिनट बाद ही जगजीत सिंह के सहयोगी नीचे आए. पता नहीं उन्होंने कैसे अंदाजा लगाया, सीधे मेरे पास आकर मुझसे पूछा कि एक्सक्यूज मी, आर यू संदीप सौरभ? मेरे हाँ कहने पर उन्होंने मुझसे हाथ मिलाया और अटेंडेंट को बुलाकर लगे उसे डांटने कि ये तो यही हैं, तुम्हें कैसे नहीं मिले. वह अवाक सा मुझे देख रहा था. अब मेरी समझ में आया कि थोड़ी देर पहले एक अटेंडेंट हाथ में जो तख्ती लिए घूम रहा था, वो मेरे लिए थी. मुझे देखकर उसे लगा नहीं होगा कि इतना दुबलापतला, कम उम्र  लड़का पत्रकार हो सकता है, इसलिए वह मेरे पास नहीं फटका और मुझे उसका पता नहीं चल पाया.

खैर उनके साथ मैंने जगजीत जी के कमरे का रुख किया. वहाँ पशमीने की शॉल और झक्क सफेद सिल्क के कुर्ते वाले जगजीत सिंह का एक नया ही रूप सामने था, टीशर्ट और जींस पहने एक आम से पंजाबी प्रौढ का. मैं एकाएक तो उन्हें पहचान ही नहीं पाया. यह मेरे लिए दूसरा झटका था. खैर उनके सहयोगी ने मेरा उनसे परिचय कराया और मुझे ससम्मान सोफे पर बैठाया. जगजीत जी के सामने ब्रेड टोस्ट के पीस और काँच के गिलास रखे थे, जिनमें एक कत्थई द्रव भरा था. हालांकि मैं अभी भी श्योर नहीं कि वह व्हिस्की थी या लेमन टी, लेकिन उस समय मुझे वह शराब ही लगी थी

मैंने जगजीत सिंह को कॉलम के बारे में बताया और उन्हें सैंपल दिखाए. पॉपुलर कल्चर अखबारों में घुसपैठ कर चुकी थी और आम दर्शकों को जोड़ने के लिए कंटेंट पर काफी उकसाऊ किस्म के टाइटिल लगाये जाने लगे थे. मुझे क्या पता था कि ये सैंपल पेश कर मैंने अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मार ली है.

सपनों में लड़कियाँ भी होती थीं (सिद्धार्थ काक), मुझे लड़कियों के सपने कभी नहीं आए ( आशीष विद्यार्थी), इश्क किसी और के साथ करना चाहता था, सपने में किसी और के साथ... (खुशवंत सिंह) जैसे टाइटिल देखकर जगजीत सिंह भड़क उठे. उनका कहना था कि आप लोगों के पास लड़कियों के अलावा कोई और टॉपिक नहीं है क्या बात करने के लिए? मैंने शांति से उन्हें समझाया कि टाइटिल लगाने में मेरी कोई भूमिका नहीं रहती. इसके बाद इंटरव्यू शुरू हुआ. एहतियातन मैंने उनसे लड़कियों के बारे में कोई सवाल नहीं पूछा. फिर भी जाने क्यों, वे ज्यादातर सवालों पर झुंझला से रहे थे, तो मुझे बड़ी असुविधा हो रही थी.

इंटरव्यू से पहले मैं उनके बारे में कुछ लेख पढ़कर गया थाइसी का फायदा उठाते हुए मैंने उनसे एक सवाल पूछा कि तीस साल पहले जो जगजीत सिंह जेब में सिर्फ चार सौ रुपए डालकर मुंबई आए थे, आज के जगजीत सिंह उनसे किस तरह अलग हैं? यह सवाल सुनते ही साहेब एक बार फिर भड़क उठे, बोले कि सपनों के बीच में यह सवाल कहाँ से गया. इस बार उनका भड़कना मुझे गैरवाजिब लगा तो मैंने उनसे कहा कि अगर आप इस तरह हर सवाल पर गुस्सा करेंगे तो इंटरव्यू कैसे ले पाऊंगा. इससे बेहतर है आप जो चाहते हैं, वही बता दीजिए. मैं लिख लूँगा. अब वह थोड़ा नर्म पड़े और बोले, 'नहींनहीं...आपको जो पूछना है, पूछ सकते हैं.

लेकिन बारबार उनकी डांट सुनकर मेरा मूड आॅफ हो चुका था. इसलिए ज्यादा कुछ पूछते हुए जैसेतैसे इंटरव्यू खत्म किया. इसके बाद उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं चाय लेना पसंद करूंगा या कॉफी. मैंने कहा कि मैं दोनों ही नहीं पीता... इस पर उन्होंने प्लेट में रखे ब्रेड टोस्ट की तरफ इशारा करते हुए कहा कि ये तो ले लीजिए. इससे पहले जीवन में मैंने कभी भी ब्रेड टोस्ट नहीं खाया था, मन तो हुआ कि टेस्ट करूं, लेकिन मैं उनसे गुस्सा था, इसलिए टोस्ट भी नहीं लिया.

 जिस समय मैं उनसे विदा ले रहा था, उन्होंने एक बार फिर मुझे ताकीद की कि मैं अपने एडिटर को ढंग का टाइटिल लगाने के लिए कहूँ. मैं सहमति में सिर हिलाकर वहाँ से चला आया.

ऐसा लग रहा था कि जैसे मैं इंटरव्यू लेकर नहीं, अपनी रैगिंग करवाकर लौट रहा होऊं.

कई साल तक मेरी नाराजगी बरकरार रही. मेरा मन इस बात को कभी स्वीकार नहीं कर सका कि इतनी मीठी आवाज वाले शख्स के व्यवहार में इतनी कड़वाहट हो सकती है. फिर धीरेधीरे सोच और चीजों को देखने के तरीके में परिपक्वता आई तो समझ आया कि ये नाराजगी बेवजह है. यह समस्या तो सार्वजनिक जीवन जीने वाले किसी भी व्यक्ति के साथ हो सकती है कि वह निजी जीवन में अपनी पब्लिक इमेज को ओढ़े रख पाए.

जगजीत को इस नश्वर संसार से विदा लिए आज नौ साल हो चुके हैं. उनकी गजलों की समृद्ध विरासत भारतीय समाज में इतनी बहुतायत में बिखरी है कि लगता ही नहीं कि जगजीत हमारे बीच नहीं हैं. उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि.

interview



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