Thursday, December 17, 2020

बातें—मुलाकातें: 35 (रघु राय)

रघुनाथ राय चौधरी को आप भले ही उनके मूल नाम से न पहचान पाएं, लेकिन यकीनन आपने अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त, लीजेंड भारतीय छायाकार रघु राय का नाम जरूर सुना होगा. फोटोग्राफी की दुनिया में उनका वही रुतबा है, जो पत्रकारिता में मार्क टल्ली का या गायन में पं. जसराज का.


पद्मश्री रघु राय ने संडे, इंडिया टुडे और स्टेट्समैन जैसे लीडिंग पब्लिकेशन में रहते हुए फोटो जर्नलिज्म को नई ऊंचाइयां दीं तो एक क्लासिकल फोटोग्राफर के तौर पर देश की सामाजिक, पुरातात्विक और प्राकृतिक संपदा को देहली, द सिख्स, कलकत्ता, खजुराहो, ताजमहल, तिबेत इन एक्साइल, इंडिया और मदर टेरेसा जैसी डेढ़ दर्जन से अधिक पुस्तकों में समेटा. विभिन्न विषयों पर उनके फोटो एसे टाइम,लाइफ, जिओ, द न्यूयॉर्क टाइम्स, संडे टाइम्स, न्यूजवीक, द इंडीपेंडेंट और न्यूयॉर्कर जैसी इंटरनेशनल पत्र—पत्रिकाओं में प्रमुखता से स्थान पाते रहे हैं.
रघु जी से मेरी मुलाकात नवभारत टाइम्स के लिए मेरा सपना कॉलम के सिलसिले में हुई थी. यह इंटरव्यू दिल्ली के खान मार्केट के पास भारती नगर स्थित उनके निवास स्थान पर हुआ.
पूरा संवाद बहुत गंभीरता और सार्थकता से भरा था. शुरू में मेरी उम्र और मेरा चेहरा देखकर उन्हें लगा कि शायद मुझे उनकी बातें समझ में न आएं, लेकिन दो—तीन सवाल—जवाब के बाद उन्हें भी मुझसे बातें करने में रस आने लगा और फिर तो उन्होंने न सिर्फ अपने सपनों और जज्बातों के बारे में खुलकर बातें की, बल्कि देश और समाज से जुड़े विषयों पर भी बेबाकी से अपने विचार प्रकट किए. कई बार जब भी उन्हें लगता कि मैं उनकी बात से उकता रहा हूँ तो वे तुरंत मेरे हाथ को छूकर मेरा ध्यान अपनी ओर खींचने की कोशिश करते थे. हालांकि ऐसा नहीं था... उनकी सब बातों से सहमत न होने के बावजूद मैं पूरी गंभीरता और धैर्य से उन्हें सुन रहा था.
बातें बहुत ज्यादा थीं, इसलिए सारी चीजें कॉलम में नहीं छप पाईं. पर इस बातचीत का फायदा ये हुआ कि जब मुझे तत्कालीन वाजपेयी सरकार के कामकाज पर एक सीरीज चलाने का मौका मिला तो मैंने एक बार फिर उन्हें फोन कर उनसे बातचीत की और इस बार फासीवाद, राष्ट्रवाद, शिवसेना, भाजपा, कॉन्ग्रेस, सामाजिक असंवेदनशीलता आदि के बारे में उनके विचारों को प्रकाशन रूप में सामने आने का मौका मिला.
दिलचस्प बात यह है कि दोनों इंटरव्यू में उन्होंने एक बात बड़ा जोर देकर कही थी और दोनों ही बार यह संपादन में बाहर हो गई. उनका कहना था कि हमारे देश में गाय की अहमियत इंसान से ज्यादा है, अगर किसी गाय के साथ दुर्घटना हो जाए तो लोग मरने—मारने पर उतारू हो जाते हैं. लेकिन एक इंसान घंटों तक सड़क पर पड़ा रहने के बाद दम तोड़ दे तो किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता.
आज मैं जब इन इंटरव्यूज को फिर से पढ़ रहा हूँ तो साफ महसूस होता है कि इतने सालों के बावजूद कहीं कुछ नहीं बदला है, बल्कि जो चिंताएं उन्होंने तब प्रकट की थीं, वे आज और भी विकट रूप में हमारे सामने हैं.
बहरहाल, आज उनका जन्मदिन है. इस मौके पर उनके उत्तम स्वास्थ्य और दीर्घायु के लिए असंख्य शुभकामनाएं.

interview





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