Monday, November 9, 2020

बातें—मुलाकातें: 30 (टी.एन.शेषन)

आम तौर पर ब्यूरोक्रेट्स को लोग एक व्यक्ति नहीं,बल्कि एक सिस्टम के तौर पर ही देखते हैं. लेकिन इनके बीच कई बार ऐसे चेहरे सामने आ जाते हैं, जो सिस्टम में लोगों का विश्वास जमाते हैं, उसकी ताकत से प​रिचित कराते हैं.


ऐसा ही एक चेहरा था पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त दिवंगत टी.एन. शेषन का. उनके निर्वाचन आयोग की कमान संभालने से पहले लोगों को चुनाव आयोग के बारे में सिर्फ इतनी ही जानकारी थी कि यह एक ऐसी संस्था है जो चुनावों की तारीख और नतीजे घोषित करती है. लेकिन जब शेषन ने अपनी भूमिका निभाना शुरू किया तो पूरे देश को बताया कि असल में चुनाव आयोग कितना शक्तिशाली है. जब वह अपने पूरे फॉर्म में आए तो बड़ेबड़े खुर्राट राजनेता उनके सामने पनाह माँगते नजर आते थे. नेताओं के नटबोल्ट कसे तो जनता के हीरो बन गए और 'गिव मी फाइव शेषन, आई विल गिव यू स्ट्रॉन्गेस्ट नेशन' एक मुहावरे के तौर पर इस्तेमाल होने लगा. इसके बार तो किरण बेदी, गोविंद खैरनार, हरजीत सिंह बाबा जैसे अनेक जननायक लोकतंत्र के शक्तिशाली पहरेदार की भूमिका में नजर आने लगे. लेकिन कुछ ही साल बाद यह पूरा माहौल एक गुबार की तरह ओझल हो गया और सब कुछ अपने पुराने ढर्रे पर लौट आया. जब किरण बेदी और टी.एन.शेषन खुद चुनाव मैदान में उतरे तो लोकप्रियता काम न आई और सराहना और समर्थन का फर्क साफसाफ महसूस किया गया. यह बहुत लंबी चर्चा का विषय है, इसलिए वापस शेषन जी पर लौटते हैं, जिन्हें आज से ठीक एक साल पहले नियति के क्रूर हाथों ने हमसे छीन लिया था.

शेषन एक बेहद सनकी ब्यूरोक्रेट के रूप में पहचाने जाते थे, जो सरेआम विज्ञापन में नेताओं को कच्चा चबाने की बात करते थे और पत्रकारों को आधी रात को फोन करके धमकने का माद्दा रखते थे. मैं उन दिनों आईआईएमसी से पत्रकारिता का कोर्स कर रहा था और अखबारों के लिए फ्रीलांस किया करता था. मुझे लगा कि अगर मैं टी.एन. शेषन का इंटरव्यू करने में कामयाब हो गया तो मेरे लिए यह एक बहुत बड़ी अचीवमेंट हो सकती है. नईनई शुरुआत थी तो इंकार चुभता नहीं था.

जनाब शेषन साहब का नंबर तलाशा और उन्हें फोन लगा दिया. उम्मीद के विपरीत उन्होंने खुद फोन उठाया. मैंने परिचय दिया कि कहा कि मैं आपका इंटरव्यू करना चाहता हूँ. वह बोले कि संडे को आ जाइएगा, लेकिन आने से पहले कॉल कर लेना. उस समय तो जैसे मेरे पाँव जमीन पर ही नहीं पड़ रहे थे, लग रहा था कि जैसे मैंने कोई बहुत बड़ी जंग जीत ली हो. लेकिन, उस वक्त नहीं मालूम था कि यह जंग का अंजाम नहीं, बल्कि आगाज है. असली जंग तो अब शुरू होनी थी.

शेषन साहब के आश्वासन से फूला न समाया मैं हवा में उड़ता हुआ नवभारत टाइम्स पहुँचा. उस समय अच्युतानंद जी एनबीटी के सहसंपादक थे. जब मैंने उन्हें बताया कि शेषन जी ने मुझे टाइम दे दिया है तो उन्हें यकीन न आया. फिर उन्होंने कहा कि यह मामला एक बहुत बड़ी हस्ती का है. इसलिए हम चाहते हैं कि जब आप इंटरव्यू लेने जाएं तो नवभारत टाइम्स से एक रिर्पोटर भी आपके साथ रहे. मुझे यह शर्त अटपटी तो लगी, लेकिन मैंने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और यही कहा कि वहाँ से कन्फर्मेशन मिलने के बाद मैं आपको बता दूँगा.

संडे मैंने सुबहसुबह शेषन साहब को फोन मिलाया और कहा कि मैंने कन्फर्मेशन के लिए फोन किया था. उन्होंने ​कहा कि वो तो आउट आॅफ स्टेशन हैं, आप तीनचार दिन के बाद फोन कर लीजिएगा.

अगली बार फोन किया तो एक बेहद मधुर महिला स्वर सुनाई दिया कि वो तो नहीं हैं, आप संडे को फोन कर  लीजिएगा. उन्हीं दिनों मैंने अखबार में पढ़ा था कि शेषन जी ने अपने फोन में एक ऐसी डिवाइस लगा रखी है, जिसके माध्यम से बच्चे, बूढ़े, बीमार बूढ़े, महिला, लड़की वगैरह करीब आधा दर्जन तरह से आवाज बदल कर बात की जा सकती है. मुझे लगा कि शायद इस बार भी ऐसा ही हो रहा है.

संडे फोन किया तो शेषन साहब की असली आवाज सुनने को मिली. मैंने कहा कि मैंने आपको इंटरव्यू के लिए कॉल किया था.

असंभव ! महाभारत के द्रोणाचार्य के अंदाज में उन्होंने एक शब्द में जवाब दिया और फोन रख दिया.

लेकिन मैं कहाँ हार मानने वाला था. कुछ दिनों बाद यह सोचकर कि अब तो वह भूल गए होंगे, मैंने नए सिरे से इंटरव्यू के लिए उनका समय माँगा. उन्होंने एक तारीख, ठीक से याद नहीं क्या तारीख थी, बता दी और कहा कि फोन करके आ जाइएगा. जब मैंने उस तारीख को उन्हें कॉल किया तो उन्होंने जवाब दिया कि वो तो बाहर गए हुए हैं. इतनी बार उनकी आवाज सुन चुका था कि धोखा होने का सवाल ही नहीं था. मैंने कहा कि उन्होंने मुझे आज इंटरव्यू के लिए बुलाया था.

'तो क्या वे आपके लिए यहाँ रुकते? उन्होंने गुस्से में कहा, 'आप कौन बोल रहे हो? हो कौन तुम?'

उनके गुस्से से मैं नर्वस हो गया, मैंने जल्दी से फोन रख दिया.

इसके बाद यह सिलसिला कई बार दोहराया गया. एक बार वह बड़े प्रेम से बात करते, अगली बार दुर्वासा बन जाते. इस आँखमिचौली के खेल में मुझे भी बहुत मजा आने लगा, इंटरव्यू लेना न लेना अब मेरी प्राथमिकता नहीं रही थी. बस उनसे बात होते रहना ही काफी था. उनके जन्मदिन पर विश करना, अलगअलग फेस्टिवल पर कॉल करके शुभकामनाएं देना सब जारी था, बस जो नहीं हो पाया, वह था शेषन साहब का इंटरव्यू.

छह महीने तक यह सब चला. फिर पता नहीं क्यों, या तो उनका नंबर बदल गया या फिर कोई और वजह रही होगी, उनका फोन उठना बंद हो गया. फिर एक दिन पता चला कि कॉन्स्टीट्यूशन क्लब में उनका भाषण है. यह सोचकर कि वहीं उनका इंटरव्यू कर लूँगा, मैं वहाँ पहुँच गया. लेकिन भाषण के बाद  सवालजवाब सत्र में उन्होंने पत्रकारों की जिस तरह क्लास ली और खिल्ली उड़ाई, उसे देखते हुए  मेरी हिम्मत न हुई कि उन्हें छेड़ूँ और मैंने उनका इंटरव्यू करने का इरादा हमेशा के लिए छोड़ दिया.

आज उनकी पहली पुण्यतिथि के अवसर पर उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि. न भूतो न भविष्यति वाली उनके जैसी शख्सियत की कमी हमेशा महसूस की जाती रहेगी.

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