Thursday, February 18, 2021

बातें—मुलाकातें: 44 (सुरेंद्र मोहन पाठक)

जासूसी की किताबें पढ़ने का शौक मुझे बचपन से ही था. जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा, वेदप्रकाश काम्बोज के नोवेल अच्छे लगते थे, लेकिन गुत्थियां सुलझाने के मामले में कर्नल रंजीत को ज्यादा पसंद करता था



उन दिनों, .मैं एक रद्दी की दुकान से पुरानी किताबें खरीद कर पढ़ा करता था. एक दिन मैंने लाश का कत्ल देखा. उसके अंतिम कवर पर संजीव कुमार से मिलते-जुलते गेटअप वाले उनके ब्लैक एंड व्हाइट फोटो के नीचे लिखा था कि सुरेंद्र मोहन पाठक के उपन्यास उस वर्ग में भी पढ़े जाते हैं, जो आमतौर पर जासूसी उपन्यासों के नाम से नाक-भौं सिकोड़ते हैं

इस लाइन से मैं बड़ा प्रभावित हुआ और वो किताब भी खरीद ली... मेजर बलवंत गुत्थियां तो सुलझाता था, लेकिन कैसे सुलझाई, इस बारे में जानकारियां देने से बचता था. पाठक जी का किरदार सुनील जिस तरह से तार्किक ढंग से पढ़ने वाले के मन में उठ रहे सवालों का जवाब दे रहा था, उसे पढ़कर मजा गया और इतना ज्यादा कि कुछ ही हफ्ते बाद एक बस अड्डे के बुकस्टॉल पर उनकी शूटिंग स्क्रिप्ट दिखी तो तुरंत छह रुपए खर्च कर वो किताब खरीद ली. यह पहला उपन्यास था, जो मैंने नया और पूरी कीमत देकर खरीदा था. लाश के कत्ल ने मुरीद बनाया था, इसने सैदाई बना दिया. फिर मिली सिन्हा मर्डर केस... इसके कोर्ट रूम ड्रामा ने एक नया अनुभव दिया.

ये वो दौर था, जब पाठकों के पास अपने प्रिय लेखकों को पत्र लिखने का भरपूर वक्त होता था और लेखक वक्त होते हुए भी पाठकों के पत्रों का उत्तर देना अपना फर्ज समझते थे और उन्हें कभी निराश नहीं करते थे. पाठक जी से भी पत्राचार आरंभ हुआ और कई बार कई अच्छी-अच्छी जानकारियाँ मिलीं.

एक और बात, जिसका जिक्र करना जरूरी है. मुझे पत्रकार बनने की प्रेरणा सुनील के नोवल पढ़कर ही मिली थी. इससे पहले सिर्फ एक लेखक बनना चाहता था, इसने और एक लक्ष्य मेरे सामने जोड़ दिया. हालांकि हकीकत में मैं खुद सुनील जैसा पत्रकार बन पाया और ही कभी ऐसे किसी पत्रकार से मिलना हुआ. हकीकत और कल्पनाओं का एक और फर्क मैंने यह भी जाना कि पाठक जी के उपन्यासों की भाषा का मेरे व्यक्तित्व पर बहुत ज्यादा असर आने लगा था, उनके लिखे जुमलों को दोहराने के चक्कर में मैंने बहुत सारे लोगों का नाराज किया, कई बार पिटने तक की नौबत गई.. पर अब इस आदत पर काबू पाना सीख लिया है और कहॉँ पाए जाते हैं, हो क्या चीज जैसे चुभने वाले वाक्यों का इस्तेमाल नहीं करता.

कुछ साल बाद मैं विधिवत प्रशिक्षण प्राप्त कर पत्रकार बन चुका था और सेलिब्रिटी इंटरव्यू का अच्छा खासा अनुभव हासिल हो चुका था. उन दिनों मैं दैनिक भास्कर के मैगजीन सेक्शन की एडिटोरियल टीम का हिस्सा था. एक दिन, अचानक मन में आया कि देश में जासूसी उपन्यासों और उनके किरदारों पर कुछ अच्छी सामग्री क्यों दी जाए, जाहिर है इसके लिए अपने प्रिय लेखक सुरेंद्र मोहन पाठक जी से बढ़िया और कौन हो सकता था, जिसके पास जाया जा सकता था. वर्षों से उनके उपन्यास पढ़ता रहा था तो एक पत्रकार से ज्यादा एक प्रशंसक के रूप में उनसे मिलने की ख्वाहिश थी, जो इंटरव्यू के बहाने पूरी होने जा रही थी. इधर-उधर से उनका नंबर जुगाड़ा और मुलाकात का वक्त मुकर्रर हुआ. संयोग ये कि हम लोगों के घर भी बहुत दूर नहीं थे. मैं लक्ष्मी नगर में रहता था और वो कृष्ण नगर में. मैं पूरी पत्रकाराना सजधज के साथ उनसे मिलने पहुंचा. इंटरव्यू तो हुआ ही, लेकिन इससे इतर बहुत सारी ऑफ रिकॉर्ड गुफ्तगू भी हुई, जिसमें कई कथित महान लोगों के कच्चे चिट्ठे जानने को मिले. कुछ उपन्यासों के कुछ अंशों पर भी खूब बात हुईं, जिसमें हम दोनों की बहुत आनंदित हुए.

मुलाकात हुई और साक्षात्कार भी. एक मशहूर हस्ती और एक पत्रकार से ज्यादा, एक लेखक और उसके प्रशंसक की बातचीत बहुत दिलचस्प थी. मैं उनके उपन्यासों के कुछ संवाद उन्हें बताता, और वे पूरा करते जाते. उनकी याददाश्त देख के मैं हैरान था और मेरी याददाश्त देखके वो खुश. बात चलती गई. बहुत सारे लेखकों के बारे में बहुत सारी ऐसी बातें पता चलीं, जो पहले कभी नहीं जानी थीं. मसलन, कौन किसके नाम से लिखता था, कौन अपनी पत्नी की लिखी चीजों को अपनी बताकर छपवाता था, कौन सा मशहूर साहित्यकार छिप-छिपकर छद्म नाम से पल्प फिक्शन भी लिखता था...वगैरह-वगैरह. जाहिर है कि वो सब बातें छापने के लिए नहीं थी. हमने अपने सपने साझा किए, मैंने बताया कि अगर मैं कभी फिल्म या सीरियल बनाने लायक हुआ तो आपके उपन्यासों पर फिल्म बनाने की तमन्ना है.

उन्होंने बताया कि उनका भी सपना था कि अपने उपन्यासों पर फिल्म बनाएं. पहले पैसा नहीं था, और जब पैसा आया तो उतना उत्साह नहीं बचा. मैं आज भी इस सपने को पूरा करने का सपना देखता हूँ और उम्मीद करता हूँ कि एक दिन मेरे पास इतना पैसा जाएगा कि सिन्हा मर्डर केस, क्राइम क्लब या शूटिंग स्क्रिप्ट, ये कुछ ऐसे उपन्यास हैं जिन पर कम बजट में अच्छी फिल्में बनाई जा सकती हैं, जैसे कथानकों को पर्दे पर उतार सकूँ.

लोकप्रिय साहित्य को पाठक जी का सबसे बड़ा योगदान यह है कि एक ऐसे दौर में जब हिंदी बेल्ट में दर्जनों चलताऊ लेखक बाजार में लोकप्रियता हासिल कर रहे थे, पाठक जी ने अपने लेखन के स्तर को कभी नीचे नहीं उतरने दिया. इसी का परिणाम है कि आज दशकों बाद भी पाठक जी अपने सभी समकालीन लेखकों के बीच सिर्फ सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लेखक के रूप में प्रतिष्ठित हैं, बल्कि जासूसी कथानकों को लुगदी साहित्य की कैद से निकालकर मुख्यधारा के साहित्य में लाने का श्रेय भी पाठक जी को ही जाता है.

आज पाठक जी के जन्मदिन के अवसर पर उनके दीर्घ, स्वस्थ और सतत् सक्रिय जीवन के लिए हार्दिक शुभकामनाएं...

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