Friday, February 5, 2021

बातें-मुलाकातें: 42 (जयप्रकाश भारती)

तीन दशकों से भी ज्यादा अर्से तक बालपत्रिका नंदन के संपादक रहे स्वर्गीय जयप्रकाश भारती जी एक ऐसी शख्सियत थे, जिन्होंने अपना सारा जीवन बच्चों को समर्पित कर दिया. साहित्यिक पत्रकारिता में जो रूतबा डॉ. धर्मवीर भारती का था, बाल पत्रकारिता में वही रुतबा जयप्रकाश भारती जी का था. उनसे मेरा परिचय बचपन से ही था, जब मैं नंदन के पाठक की हैसियत से कभी-कभार उन्हें पत्र लिखता था और उनका उत्तर पाकर खुशी से फूला नहीं समाता था. वे संपादकीय में स्वयं को तुम्हारा भैया, जयप्रकाश भारती लिखते थे तो हम भी उन्हें भैया जी ही कहा करते थे.




जब दिल्ली जाकर पत्रकारिता आरंभ की तो अलग-अलग प्रकाशनों के संपादकों से मिलना-जुलना शुरू हो गया. लेकिन, जितनी बेतकल्लुुफी और अपनापन भारती जी से बात करते हुए अनुभव होता था, उतना कहीं और नहीं हुआ. वह संघर्ष और फाकमस्ती का दौर था, ऐसे में उनका स्नेह, सहानुभूति और मार्गदर्शन बहुत संबल प्रदान करता था. हम दोनों ही पश्चिम उत्तर प्रदेश से थे, तो उनकी बेतकल्लुफी में किसी पर गुस्सा जाहिर करते हुए स्थानीय गाली का भी समावेश हो जाया करता था. 


हमारे एक रैकेटियर प्रोफेसर थे, उन्होंने अपने एक जातभाई संपादक का इंटरव्यू लेने के लिए भेजा. हमारे सहपाठी उमेश चतुर्वेदी जी की मीडिया की भीतरी खबरों पर काफी पैनी नजर रहती थी. उन्होंने बताया कि वह संपादक दैनिक जागरण में जाने वाले हैं. मैंने उनका इंटरव्यू करते समय इस नायाब जानकारी का बेजा इस्तेमाल करते हुए उनसे पूछ लिया कि सुना है कि आप.... इस पर वे भड़क उठे और भद्रता व भलमनसाहत का नकाब फेंकते हुए मुझे खरी-खोटी सुनाने लगे कि आपने ऐसा सवाल पूछ कैसे लिया वगैरह-वगैरह और मेरा यह पहला इंटरव्यू बुरी तरह फ्लाप रहा. 


भारती जी और वह संपादक चूंकि एक ही प्रकाशन समूह में काम करते थे, इसलिए मैंने उनसे यह अनुभव साझा किया. इस पर उन्होंने उस संपादक को गाली देते कहा कि भैनचो, ऐसे लोग ही तो पत्रकारिता के कलंक हैं. आपने उन्हें कोई गाली थोड़े ही दे दी थी, जो वे इतना भड़क रहे थे. फिर उन्होंने बताया कि उन्होंने ऐसे कई संपादकों को मालिकों के तलवे चाटते हुए देखा है. उनका कहना था कि ये मैं कोई मुहावरा नहीं बोल रहा हूँ, बल्कि वास्तविकता बता रहा हूँ. फिर उन्होंने बाकायदा जीभ निकालकर अपनी हथेली पर फिराते हुए डेमो दिखाया कि ऐसे तलवे चाटते हुए देखा है.


ऐसे ही एक बार उन्होंने मुझसे कहा कि आप दिल्ली प्रेस में काम के लिए क्यों कोशिश नहीं करते? मैंने कहा कि सुना है वहाँ शोषण बहुत करते हैं. इस पर वे नाराज हो गए, बोले कि शोषण क्या होता है? हो सकता है कि वे कम वेतन देते हों, लेकिन आप इसे स्वीकार करते हैं तभी काम पर जाते हैं. फिर उन्हें पता नहीं क्या सूझी, कहने लगे कि ऐसे ही बहुत सारी लेखिकाएं हैं. जो पहले छपने के लिए समझौते करती हैं और बाद में कहती हैं कि मेरा शोषण हुआ. हालांकि उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि भोगी संपादकों में वे शामिल नहीं हैं. हालांकि मेरे बार-बार पूछने पर भी उन्होंने किसी लेखिका का नाम नहीं बताया.


ऐसी तमाम हल्की-फुल्की बातों के बीच एक बार उन्होंने एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही. उन्होंने मुझसे पूछा कि आप क्यों लिखते हैं, मैंने कहा नाम के लिए. उन्होंने समझाया कि नाम बहुत बड़ा भ्रम है. फिर उन्होंने मुझे विष्णु पराड़कर और उनके समकालीन कई पत्रकारों के नाम गिनाए और बोले कि इनमें से आपने किस-किस का नाम सुना है. मैंने दो-तीन नाम बताए. इस पर वे बोले कि ये सभी लोग अपने वक्त के नामचीन पत्रकार रहे हैं. आप पत्रकारिता में होकर भी इनमें से ज्यादातर के नाम से परिचित नहीं है तो सोचिए कि कहाँ गया इनका नाम. इसलिए दाम की सोचिए. इस बात का मुझ पर यह असर हुआ कि मैं कॉपी राइटिंग या घोस्ट राइटिंग जैसे काम भी करने लग गया, जिनके साथ नाम तो नहीं जाता था, लेकिन पैसे अच्छे मिल जाते थे.


एक बार नंदन में उपसंपादक की जगह खाली हुई. मैंने उनसे कहा कि मुझे यह जॉब मिल सकती है क्या, उन्होंने कहा कि एक रिटेन टेस्ट होगा, उसे पास कर लीजिए. बाद में देख लेंगे. मैंने यह टेस्ट क्वालीफाई किया, इंटरव्यू के लिए कॉल लैटर भी आया, लेकिन इतना देर से कि दिल्ली में मेरा डाक का पता बदल चुका था और जब मुझे इसका पता चला, तब तक बहुत देर हो चुकी थी. मैं उनसे मिला तो उन्हें भी बहुत अफसोस हुआ. वे बोले कि अभी तो किसी और को नियुक्त कर लिया गया है. बाद में कभी देखते हैं.


आज उनकी पुण्यतिथि है, इस मौके पर उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि. के साथ ऐसी अनगिनत यादे हैं जो साझा की जा सकती हैं, लेकिन बजाए इसके आप इस बेहतरीन इंटरव्यू का आनंद लीजिए, जो बाल पत्रकारिता और लेखन से जुड़ी अनेक चुनौतियों से परिचित कराता है. 


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