Saturday, September 15, 2012

‘बैड’ इज मोर अपीलिंग दैन ‘बेस्ट’


वर्षों पहले, अगर आपको याद हो तो टेलीविजन पर एक डिटर्जेंट का एड आता था, जिसमें एक पात्र, दूसरे के बाजू से निकलते हुए  अपने आप से पूछता है कि भला उसकी कमीज मेरी कमीज से सफेद कैसे...और फिर उसे पता चलता है कि किस डिटरजेंट के इस्तेमाल से वह भी उस अजनबी जैसी सफेदी पा सकता है. 


ये इंडिया में वीडियो एडवर्टाइजिंग का आरंभिक दौर था. इसके बाद के कुछ सालों में तो यह अनेक मुकामों से गुजरी. और अंतः में प्रतिस्पर्द्धा के नए-नए कीर्तिमान स्थापित करते हुए दो धाराओं  में  बंट गई. एक अपनी कमीज को दूसरे की कमीज से सफेद बताने में विश्वास रखते हुए उपभोक्ताओं को रिझाने की कोशिश करती हुई और दूसरे सीधे प्रतिस्पर्द्धी  की कमीज को गंदा बताती थी और यह उपभोक्ताओं पर छोड़ देती थी कि वे सामने वाले की कमीज को गंदा समझकर, शाब्दिक हमला करने वाले की कमीज को ही साफ मानें.

विज्ञापनों की भाषा में इसे  कंपयरेटिव   एडवर्टाइजिंग कहा जाता है...और ज्यादा तकनीकी शब्द का इस्तेमाल करना हो तो इसे नाकिंग कापीभी कह सकते हैं. इसी तरह की एक विधा पैरोडी एडवर्टाजिंग भी है, लेकिन उसमें उत्पाद वास्तविक नहीं होता, बल्कि सिर्फ मजा लेने के लिए किसी काल्पनिक उत्पाद को प्रचारित करते विज्ञापन तैयार किए जाते हैं. कई बार पैरोडी की जगह सैटायर का इस्तेमाल किया जाता है, जिसमें उत्पाद को तो कुछ नहीं कहा जाता, लेकिन उसके विज्ञापन का मजाक उड़ाकर अपने उत्पाद का प्रचार किया जाता है. एक सोडा ड्रिंक, मशहूर कंपनियों के कोल्डड्रिंक के विज्ञापन आते ही, उनकी मजाक उड़ाने वाले विज्ञापन पेश कर देता था. यह सिलसिला कई साल तक चला. 

भारत में भले ही कंपयरेटिव  एडवर्टाइजिंग को पेशेवर तरीके से अपनाने की परंपरा ज्यादा पुरानी नहीं है, लेकिन वास्तव में यह एक सदी से भी ज्यादा पुरानी है. कंपयरेटिव एडवर्टाइजिंग का पहला मामला अमेरिका में 1910 में सामने आया था. पहले इसे काफी जोखिम भरा माना जाता था कि यह उत्पाद की पहचान को नुकसान पहुँचा सकती है, कानूनी कार्रवाई का सबब बन सकती है और लोगों में प्रतिस्पद्र्धी के प्रति सहानुभूति पैदा कर सकती है, लेकिन ‘70 के दशक में इसके सकारात्मक पक्षों पर विचार किया गया और इसे प्रोत्साहन दिया जाना शुरू हो गया और एफटीसी (फेडेरल ट्रेड कमीशन) बाकायदा ऐसे विज्ञापनदाताओं को बढ़ावा देती थी, जो  प्रतिस्पर्द्धी का खुलेआम नाम लेकर रचनात्मक विज्ञापन पेश करते थे. एफटीसी का मानना था कि इससे उत्पादों की गुणवत्ता में नयापन और सुधार आएगा.

यह मुकाबलेबाजी बहुत दिलचस्प रही है. अगर कोई चैनल इस पर भी रियलिटी शो बनाने का जोखिम उठाए तो वह टीआरपी में काफी ऊपर जा सकता है. मिंट की गोली का एक विज्ञापन कहेगा कि हमारे उत्पाद का छेद उसे विश्वस्त बनाता है, तो दूसरी गोली का विज्ञापन कहेगा कि क्या आपके दिमाग में छेद है, जो छेद वाली मिंट खाएंगे. एक नमक कहेगा कि दूसरे नमक को टाटाबोल दो तो दूसरा कैप्टनको गोली मारने की राय देगा. एक बिस्कुट कंपनी बताएगी कि मोना-को’  टॉप बाटम प्राब्लम है तो एक डिटरजेंट कंपनी और ज्यादा हिम्मत दिखाएगी और सीधे-सीधे कहेगी कि उसका डिटरजेंट टाइड से ज्यादा सफेदी देता है. दर्शकों का तो पता नहीं, लेकिन चैनलों के लिए यह जरूर आम के आम और गुठलियों के दाम जैसा फायदेमंद हो सकता है. 

एक पुरानी कहानी है, जिसमें राजा अपने  बुद्धिमान मंत्री के सामने एक लकीर खींचकर उसे बिना मिटाए छोटी करने की चुनौती पेश करता है तो मंत्री उसके ऊपर एक उससे भी बड़ी लकीर खींच देता है. लेकिन, आज के फटाफट कल्चर वाले दौर में बड़ी लकीर खींचने के लिए जो वक्त चाहिए, उसका काफी टोटा है, इसलिए लकीर को मिटाकर ही खुद को बड़ा साबित करने का शार्टकट अपनाने वालों की तादाद बढ़ रही है. और कंपयरेटिव एडवर्टाइजिंग अपने मूल उद्देश्य को बहुत पीछे छोड़ चुकी है. 

दूसरे की कमजोरी को अपनी ताकत बताने का यह सिलसिला लंबे समय से चल रहा है. राजनीति में भी और विज्ञापनों में भी. जिस तरह हमारे नेता अपनी खूबियों की बजाए, विरोधी की कमियां बताने में ज्यादा विश्वास करते हैं, वैसे ही विज्ञापन भी कर रहे हैं. बस प्रतिशत का फर्क है. शायद इसकी वजह यह है कि विज्ञापनों पर अभी भी प्रतिस्पर्द्धा आयोग और एडवर्टाइजिंग स्टेंडर्ड काउंसिल जैसी नियामक संस्थाओं का अंकुश है, जबकि राजनेताओं पर किसी भी शाब्दिक मुकाबलेबाजी के लिए कोई पाबंदी नहीं है. देखा जाए तो यह स्थिति विज्ञापनों के हित में है, क्योंकि इसी से राजनेताओं के विपरीत, उनकी विश्वसनीयता अभी तक बची हुई है.

                                                                                                                                                                                                               -संदीप अग्रवाल , नागपुर 

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