Tuesday, November 8, 2011

मनोरंजन की एक नई विधाः विज्ञापन

एक जमाना था, जब टेलीविजन पर किसी कार्यक्रम या फिल्म के बीच आने वाले विज्ञापनों को अनचाहे मेहमानों की तरह देखा जाता था और उनके प्रसारण के दौरान घर के लोग इधर-उधर के काम निपटाते थे और ब्रेक खत्म हो गया की एक आवाज सुनते ही वापस टेलीविजन के सामने आ बैठते थे. लेकिन आज हालात एकदम बदल चुके हैं. रचनात्मकता के फैलते फलक और और तकनीक के लगातार उन्नत होने ने विज्ञापनों को पूरी तरह बदल दिया है और आज विज्ञापन भी किसी सीरियल या फिल्म की तरह न सिर्फ देखे जाते हैं, बल्कि आम लोगों की चर्चाओं के बीच भी जगह पाते हैं. अगर कहें कि विज्ञापन के रूप में हमें मनोरंजन की एक नई विधा मिल गई है, तो यह गलत न होगा.
मनोरंजन के उद्देश्य से जो भी रचा जाता है, आखिर उसका पैमाना क्या है? सबसे पहली शर्त, उसे दिलचस्प होना चाहिए. इसके बाद उसका दर्शकों से जुड़ाव होना चाहिए, उसमें एक कथा, एक संदेश होना चाहिए और बहुत ज्यादा हुआ तो उसकी सोशल एंड पीरियड रेलिवेंसी होनी चाहिए. विज्ञापन मनोरंजन की इन सभी कसौटियों पर खरे उतरते हैं. उनमें एक साहित्यिक रचना की तरह एक शुरूआत, एक मध्य, एक अंत होता है...अलंकार होते हैं, रस होते हैं. किसी फिल्म की तरह संगीत होता है, एक्शन होता है, इमोशन होती हैं, कला होती है, कविता होती है, रंगों और रोशनी का तिलिस्म होता है और सबसे बढ़कर एक कौतूहल होता है, जो देखने वालों को अंत तक उससे बांधे रखता है. कम से कम समय में बड़ी-बड़ी बातें कह डालना इन विज्ञापनों की सबसे बड़ी खासियत होती है, जो आज के करीब पॉंच मिनट तक देखने वालों का अटेंशन बनाए रखने के छोटे से टाइम स्पॅन के 20-25 फीसदी समय का इस्तेमाल कर बड़ी कुशलता से अपनी बात उन तक पहुंचाकर, उन्हें सोचने के लिए छोड़कर रफूचक्कर हो जाते हैं. उनका संदेश, किसी भी कहानी या फिल्म के संदेश की तरह मन के गहरे तक पैठ बनाता है. फर्क यह है कि वहां एक विचार की मार्केटिंग हो रही है, यहां एक उत्पाद की.
विज्ञापनों ने अपने आपको समाज से भी जोड़ा है. कहीं वे करप्शन के खिलाफ लोगों को जगाते नजर आते हैं, कहीं दूसरों की मदद का संदेश देते हुए. परिवार और प्यार के रिश्तों को नई ऊर्जा देनें में भी वे पीछे नहीं हैं. रस्मों और रिवाजों को निभाने की सीख भी वे देते हैं, भले ही अपने उत्पाद के उपभोग की सलाह देते हुए. एक मॉं की ममता भी यहॉं है और पिता की जिम्मेदारी भी, बचपन की चपलता से भी आप यहॉं साक्षात कर सकते हैं और टीनएज की अल्हड़ता, मगर अपने लक्ष्य के प्रति संजीदगी से भी. विज्ञापन हमारे समाज, हमारे परिवार और खुद हमारा आईना बन चुके हैं. लोककहावतों की तरह ये भी हमारे जीवन के मुहावरे बन गए हैं. बातचीत में हम इनकी पंचलाइन का इस्तेमाल करते हैं और कुछ मीठा हो जाए, पागलपंती भी जरूरी है, पप्पू पास हो गया, एक से मेरा क्या होगा, जिंदगी के साथ भी-जिंदगी के बाद भी जैसे जुमलों का मौके बेमौके इस्तेमाल कर अपने मित्रों-परिचितों को अपनी हाजिरजवाबी का लोहा मनवाते हैं. ये वक्त के साथ कदमताल में कहीं भी पीछे नहीं हैं. यही वजह है कि एक समय दाग ढूंढते रह जाओगे की पंचलाइन के साथ अपनी क्वालिटी को साबित करने वाला एक डिटर्जेंट आज दाग अच्छे हैं की हिमायत करता नजर आता है. यह है समय के साथ बदलने और समाज के साथ जुड़ाव को बनाए रखने की कला, जिसमें विज्ञापन भली-भांति माहिर हो चुके हैं.
इसलिए आज जब आप अपने दोस्त को आपसे यह पूछते सुनते हैं कि क्या तुमने फलां एड देखा है? तो आपको ताज्जुब नहीं होता. क्योंकि उसके सवाल का जवाब देने के साथ ही आपके पास भी डिस्कस करने के लिए एक एड मौजूद होता है.

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