Friday, December 14, 2012

छोटे मियां सुभानअल्लाह !


एक पुरानी कहावत है कि हर वयस्क व्यक्ति के भीतर एक बच्चा हमेशा जिंदा रहता है, जिसे बाहर आने के लिए सिर्फ एक अदद बहाने की जरूरत होती है. लेकिन, विज्ञापनों की दुनिया ने बच्चों में वयस्कों को खोज निकाला है. न सिर्फ खोज निकाला है, बल्कि उन्हें अपने वयस्क आचरण और सोच का प्रदर्शन करने के लिए कई माकूल मौके और बहाने भी दिए हैं. इन दिनों चल रहा एक शॉपिंग साइट के एड कैंपेन को देखकर इस आचरण को भलीभांति समझा जा सकता है, जिसमें बच्चे बड़ों की तरह मूंछ लगाए, साड़ी पहने उनके जैसा ही धीर-गंभीर आचरण करते नजर आते हैं. 

यूं तो बचपन, हमेशा से ही विज्ञापनों का प्रिय विषय रहा है और विज्ञापनों में उनकी मासूम बातों, बालसुलभ गतिविधियों का बहुतायत में इस्तेमाल भी किया गया है. लेकिन, पहले यह सब सिर्फ बच्चों के लिए बने उत्पादों, जैसे कि एनर्जी ड्रिंक्स, बिस्कुट, चाकलेट, चिप्स, स्टेशनरी, खिलौनों,  किताबों आदि के लिए किया जाता था. ज्यादातर, ऐसी चीजें जिन्हें खरीदने का फैसला करने में बहुत अक्ल लगाने की जरूरत नहीं पड़ती थी. लेकिन, ऐसे विज्ञापनों में उनकी भूमिका बड़ों की मिमिक्री करने या टीचर के साथ शरारत करने जैसी बातों तक ही सीमित रहती थी. 

इसके बाद के दौर में विज्ञापनों ने बालहठ की प्रवृत्ति का दोहन करना शुरू किया और उन्हें ऐसे उत्पादों के विज्ञापनों में भी इस्तेमाल करने लगे, जो विशेषतः बच्चों के लिए न होकर पूरे परिवार के लिए होते थे. विज्ञापनों में सर्फ-साबुन जैसी मामूली चीजों से लेकर टीवी, कार, बाइक, फ्रिज जैसी कीमती चीजों तक को खरीदने के फेसलों में उन्हें हस्तक्षेप करते दिखाया जाने लगा. जिसने भारतीय, खासकर मध्यवर्ग परिवारों में बच्चों को डिसीजनमेकर्स की भूमिका में ला दिया. विज्ञापन में हमउम्र बच्चों को निर्णायक की भूमिका निभाते देखते बच्चे वास्तविक जीवन में भी वैसी ही भूमिका निभाने लग गए. इस चलन पर अनेक बार अनेक आपत्तियां भी उठीं कि वयस्कों के काम आने वाली चीजों में बच्चों का इस्तेमाल इमोशनल ब्लैकमेलिंग को बढ़ावा दे रहा है, लेकिन समय के साथ-साथ ऐसी आपत्तियां अपने आप ही आउट ऑफ फैशन भी होती गईं.


मगर  अब बात सिर्फ इतने तक ही सीमित नहीं रही है. अब बच्चे सिर्फ स्क्रीन पर दिखने भर के लिए बच्चे हैं. वे गुडि़यों का विवाह करने की उम्र में खुद रोमांस करते नजर आते हैं, जिन चीजों का एबीसी भी शायद उन्हें मालूम न हो, उन्हें लेकर बड़ों को बेवकूफ साबित करते दिखाई दे जाते हैं. बीते दिनों एक मोबाइल सेवा प्रदाता कंपनी के विज्ञापन को लेकर बहुतों की भृकुटियां तनी थीं, जिसमें सीढि़यों पर तन्हाई में रोमांस करते एक प्रीटीन ‘कपल’ को डिस्टर्ब करने आ रहे एक बूढ़े को, एक कुत्ता ऊपर नहीं आने देता. इसी एड के प्रीक्वल में यही कुत्ता, लड़की का स्कार्फ ले जाकर लड़के को देता है और उनके बीच प्रेम का सूत्रपात करता है. 

आज के विज्ञापनों में वे स्टेटस सिंबल्स को लेकर अपने पैरेंट्स से ज्यादा कॉशस हैं. एक बाइक के नए एड में अपने पिता का ‘चलता है’ वाला एटिट्यूड देखकर बच्चे का पारा चढ़ता जाता है और जब उसका सब्र जवाब दे जाता है तो वह बाप को ही झाड़ देता है कि अब बोलो चलता है. एक इंश्योरेंस कंपनी के एक विज्ञापन में बच्चा अपने चाचा को सलाह देता है कि उसे कौन सा प्लान लेना चाहिए और कैसी गर्लफ्रैंड से शादी करनी चाहिए. 

इस तरह के विज्ञापनों को लेकर समाज में ही नहीं, विज्ञापन जगत के पेशेवरों के बीच भी दो किस्म के मत प्रचलित हैं. पहली धारा मानती है कि आज के बच्चे अब पहले जैसे नहीं रहे, उनसे मासूमियत छीनने वाली और भी बहुत सारी चीजें हैं. इसके लिए सिर्फ विज्ञापनों को ही कटघरे में नहीं खड़ा किया जाना चाहिए. वहीं दूसरी धारा बच्चों के इस तरह के अनुपयुक्त इस्तेमाल के पक्ष में नहीं है. पिछले साल, इस मुद्दे पर काफी बहस के बाद, कुछ कंपनियों ने मिलकर एक प्रतिज्ञापत्र पर हस्ताक्षर किए थे, जिसमें कहा गया था कि वे ऐसे उत्पादों में विज्ञापनों में बारह साल से कम उम्र के बच्चों का इस्तेमाल नहीं करेंगे, जिनका संबंध उनकी पोषण आवश्यकताओं से हो. यह प्रतिज्ञा खासकर फूड सप्लिमेंट्स के विज्ञापनों के संदर्भ में थी, लेकिन ऐसे प्रतिज्ञापत्र की जरूरत बच्चों को  फीचर करने वाले सभी किस्म के विज्ञापनों के लिए जरूरी है.

संदीप अग्रवाल
नागपुर

No comments:

Post a Comment