कन्ज्यूमर राइट्स के प्रोटेक्शन के लिए सरकार पार्लियामेंट के विंटर सेशन में एक ऐसा बिल इन्ट्रोड्यूस करने की तैयारी में है, जिसमें सोकाॅल्ड मिसगाइडिंग एडवर्टाइजमेंट्स पर लगाम लगाने की बात कही गई है. इस प्रपोज्ड बिल के प्रोवीजंस के अकाॅर्डिंग, किसी भी प्रोडक्ट या सर्विस के बारे में विज्ञापनों के जरिए गलत जानकारी देने पर प्रोडक्ट मैनफैक्चरर या सर्विस प्रोवाइडर कंपनी के अगेंस्ट कड़ी कार्रवाई हो सकती है. इस कार्रवाई में दो से पाँच साल की कैद या 10 से 50 लाख रुपए की पैनल्टी या फिर दोनों की सजा दी जा सकती है.
लास्ट ईयर इसी तरह का एक कोड़ा ऐसे एडवर्टाइजमेंट में प्राॅडक्ट को एन्डोर्स करने वाले सेलिब्रिटीज पर भी फटकारा जा चुका है, जिसमें एडवर्टाइजमेंट्स में प्राॅडक्ट के बारे में बढ़ा-चढाकर बातें करने वाले स्टार्स को जेल और जुर्माने की सजा से डराया गया था. जबकि ज्यादातर मामलों में सेलिब्रिटीज को न तो पता होता है और न ही उनके पास पता करने का कोई तरीका होता है कि जिस प्राॅडक्ट को वे एन्डोर्स करने जा रहे हैं, उसके दावों की सच्चाई क्या है.
अपने प्राॅडक्ट्स को बेचने के लिए प्राॅडक्ट के बारे में बढ़ा-चढ़ा कर बताना कोई नई बात नहीं है, बड़े-बड़े मैनफैक्चरर ही नहीं, बल्कि बसों में बाम और सड़कों पर मजमा लगाकर टूथ पाउडर बेचने वाले भी यही करते हैं और दशकों से करते आ रहे हैं. ऐसा नहीं करेंगे तो प्राॅडक्ट कैसे बिकेगा. मान लीजिए कि एक कंपनी एक ऐसी क्रीम बनाती है, जो स्किन को फेअर बनाने के पर्पज से खरीदी जानी है. अगर वह कहे कि हमारी क्रीम बनाई तो इसी इसी पर्पज से गई है, लेकिन हो सकता है कि यह आपको गोरा न बना पाए. अब इतनी आॅनेस्टी तो शायद ही कोई दिखाएगा कि अपने प्राॅडक्ट की लिमिटेशंस के बारे में बताते हुए प्राॅडक्ट्स सेल करने की सोचे. और अगर वह सोचे भी तो क्या कोई भी प्राॅस्पेक्टिव कन्ज्यूमर उसे खरीदेगा?
जाहिर है कि कन्ज्यूमर्स को अट्रेक्ट करने के लिए अलंकारों से भरी भाषा का इस्तेमाल, मार्केटिंग की स्टर्टजी का एक इंटीग्रल पार्ट है. इस लैंग्वेज पर उंगली उठाने से पहले तीन बातें समझना बहुत जरूरी है, एक तो यह कि इसमें कन्ज्यूमर को अपनी ऐसी प्राॅब्लम्स से छुटकारा पाने का साॅल्यूशन नजर आता है, जो उसे इनफीरियरटी काॅम्प्लेक्स और फ्रस्ट्रेटन से भरे रहती हैं. दूसरी बात यह कि ये ‘पाॅवर आॅफ फेथ ’ का यूज करते हुए उसमें एक काॅन्फिडेंस क्रिएट करती है, जिसमें वह फायदा न होते हुए भी फायदा होते हुए महसूस करता है. साइंस भी इसे ‘प्लेसबो इफेक्ट’ के तौर पर एक्सेप्ट करता है. तीसरी और सबसे अहम बात यह है कि हर इंसान की किसी चीज से फायदा उठाने की क्षमता अलग-अलग होती है. एक सही प्राॅडक्ट भी कुछ यूजर्स के लिए फायदेमंद और कुछ के लिए नुकसानदेह या बेअसर साबित हो सकता है. ऐसे में शिकायत आने पर कार्रवाई का पैमाना क्या होगा, यह कौन तय करेगा?
आर्ट आॅफ सेलिंग और एक्ट आॅफ चीटिंग, दोनों में एक बड़ा फर्क है. लेकिन प्रपोज्ड बिल इस फर्क को मिटा देगा. हो सकता है कि कुछ विज्ञापन दावे करने के मामले में लाॅजिक की हदों को पार कर जाते हों, लेकिन इन पर काबू के लिए एडवर्टाइजिंग स्टैंडर्ड काउंसिल आॅफ इंडिया जैसी बाॅडी है, जो किसी भी एडवर्टाइजमेंट के अगेंस्ट आने वाली हर कम्प्लेंट को काफी सीरियसली लेती हैं और अकाॅर्डिंगली उसे मीडिया से हटवा भी देती हैं. इस तरह के आदेश से एडवर्टाइजिंग इंडस्ट्री पर एक अननेसेसरी प्रेशर जेनरेट होगा, जिसमें उनका काम और क्रिएटिविटी सफर करेगी. क्रिएटिव एनर्जी और हजारों-लाखों आॅप्शंस के बीच आज यह कल्पना तो नहीं की जा सकती कि साठ के दशक की तरह एक माॅडल के हाथ में प्राॅडक्ट थमाकर खींचे गए उसके फोटोग्राफ के जरिए प्राॅडक्ट को प्रमोट किया जाए.
अगर सरकार वाकई कन्ज्यूमर्स के राइट्स को लेकर इतनी सीरियस है तो उसे चाहिए कि ऐसे प्राॅडक्ट को मार्केट में लाॅन्च किए जाने से पहले ही सारे टेस्ट कर ले और उसे बेचे जाने की परमिशन ही तब दे, जब यह पक्का हो जाए कि वह प्राॅडक्ट कन्ज्यूमर को वाकई वे सब फायदे दे सकता है, जिसके लिए उसे बेचा जा रहा है. तभी यह एन्श्योर किया जा सकता है कि प्राॅडक्ट के बारे में जो भी उसके एडवर्टाइजमेंट में बताया जा रहा है, वह अक्षरशः सच है.
चलते-चलते
कुछ लोगों का सवाल है कि क्या चुनावों के दौरान वोट पाने के लिए दिए जाने वाले विज्ञापनों पर भी यह पाबंदी लागू होगी ?