Friday, December 14, 2012

छोटे मियां सुभानअल्लाह !


एक पुरानी कहावत है कि हर वयस्क व्यक्ति के भीतर एक बच्चा हमेशा जिंदा रहता है, जिसे बाहर आने के लिए सिर्फ एक अदद बहाने की जरूरत होती है. लेकिन, विज्ञापनों की दुनिया ने बच्चों में वयस्कों को खोज निकाला है. न सिर्फ खोज निकाला है, बल्कि उन्हें अपने वयस्क आचरण और सोच का प्रदर्शन करने के लिए कई माकूल मौके और बहाने भी दिए हैं. इन दिनों चल रहा एक शॉपिंग साइट के एड कैंपेन को देखकर इस आचरण को भलीभांति समझा जा सकता है, जिसमें बच्चे बड़ों की तरह मूंछ लगाए, साड़ी पहने उनके जैसा ही धीर-गंभीर आचरण करते नजर आते हैं. 

यूं तो बचपन, हमेशा से ही विज्ञापनों का प्रिय विषय रहा है और विज्ञापनों में उनकी मासूम बातों, बालसुलभ गतिविधियों का बहुतायत में इस्तेमाल भी किया गया है. लेकिन, पहले यह सब सिर्फ बच्चों के लिए बने उत्पादों, जैसे कि एनर्जी ड्रिंक्स, बिस्कुट, चाकलेट, चिप्स, स्टेशनरी, खिलौनों,  किताबों आदि के लिए किया जाता था. ज्यादातर, ऐसी चीजें जिन्हें खरीदने का फैसला करने में बहुत अक्ल लगाने की जरूरत नहीं पड़ती थी. लेकिन, ऐसे विज्ञापनों में उनकी भूमिका बड़ों की मिमिक्री करने या टीचर के साथ शरारत करने जैसी बातों तक ही सीमित रहती थी. 

इसके बाद के दौर में विज्ञापनों ने बालहठ की प्रवृत्ति का दोहन करना शुरू किया और उन्हें ऐसे उत्पादों के विज्ञापनों में भी इस्तेमाल करने लगे, जो विशेषतः बच्चों के लिए न होकर पूरे परिवार के लिए होते थे. विज्ञापनों में सर्फ-साबुन जैसी मामूली चीजों से लेकर टीवी, कार, बाइक, फ्रिज जैसी कीमती चीजों तक को खरीदने के फेसलों में उन्हें हस्तक्षेप करते दिखाया जाने लगा. जिसने भारतीय, खासकर मध्यवर्ग परिवारों में बच्चों को डिसीजनमेकर्स की भूमिका में ला दिया. विज्ञापन में हमउम्र बच्चों को निर्णायक की भूमिका निभाते देखते बच्चे वास्तविक जीवन में भी वैसी ही भूमिका निभाने लग गए. इस चलन पर अनेक बार अनेक आपत्तियां भी उठीं कि वयस्कों के काम आने वाली चीजों में बच्चों का इस्तेमाल इमोशनल ब्लैकमेलिंग को बढ़ावा दे रहा है, लेकिन समय के साथ-साथ ऐसी आपत्तियां अपने आप ही आउट ऑफ फैशन भी होती गईं.


मगर  अब बात सिर्फ इतने तक ही सीमित नहीं रही है. अब बच्चे सिर्फ स्क्रीन पर दिखने भर के लिए बच्चे हैं. वे गुडि़यों का विवाह करने की उम्र में खुद रोमांस करते नजर आते हैं, जिन चीजों का एबीसी भी शायद उन्हें मालूम न हो, उन्हें लेकर बड़ों को बेवकूफ साबित करते दिखाई दे जाते हैं. बीते दिनों एक मोबाइल सेवा प्रदाता कंपनी के विज्ञापन को लेकर बहुतों की भृकुटियां तनी थीं, जिसमें सीढि़यों पर तन्हाई में रोमांस करते एक प्रीटीन ‘कपल’ को डिस्टर्ब करने आ रहे एक बूढ़े को, एक कुत्ता ऊपर नहीं आने देता. इसी एड के प्रीक्वल में यही कुत्ता, लड़की का स्कार्फ ले जाकर लड़के को देता है और उनके बीच प्रेम का सूत्रपात करता है. 

आज के विज्ञापनों में वे स्टेटस सिंबल्स को लेकर अपने पैरेंट्स से ज्यादा कॉशस हैं. एक बाइक के नए एड में अपने पिता का ‘चलता है’ वाला एटिट्यूड देखकर बच्चे का पारा चढ़ता जाता है और जब उसका सब्र जवाब दे जाता है तो वह बाप को ही झाड़ देता है कि अब बोलो चलता है. एक इंश्योरेंस कंपनी के एक विज्ञापन में बच्चा अपने चाचा को सलाह देता है कि उसे कौन सा प्लान लेना चाहिए और कैसी गर्लफ्रैंड से शादी करनी चाहिए. 

इस तरह के विज्ञापनों को लेकर समाज में ही नहीं, विज्ञापन जगत के पेशेवरों के बीच भी दो किस्म के मत प्रचलित हैं. पहली धारा मानती है कि आज के बच्चे अब पहले जैसे नहीं रहे, उनसे मासूमियत छीनने वाली और भी बहुत सारी चीजें हैं. इसके लिए सिर्फ विज्ञापनों को ही कटघरे में नहीं खड़ा किया जाना चाहिए. वहीं दूसरी धारा बच्चों के इस तरह के अनुपयुक्त इस्तेमाल के पक्ष में नहीं है. पिछले साल, इस मुद्दे पर काफी बहस के बाद, कुछ कंपनियों ने मिलकर एक प्रतिज्ञापत्र पर हस्ताक्षर किए थे, जिसमें कहा गया था कि वे ऐसे उत्पादों में विज्ञापनों में बारह साल से कम उम्र के बच्चों का इस्तेमाल नहीं करेंगे, जिनका संबंध उनकी पोषण आवश्यकताओं से हो. यह प्रतिज्ञा खासकर फूड सप्लिमेंट्स के विज्ञापनों के संदर्भ में थी, लेकिन ऐसे प्रतिज्ञापत्र की जरूरत बच्चों को  फीचर करने वाले सभी किस्म के विज्ञापनों के लिए जरूरी है.

संदीप अग्रवाल
नागपुर

सरहदें लांघता स्वाद

हमारी दुनिया में ऐसी बहुत सारी चीजें हैं, जो इंसान की बनाई भौगोलिक सीमाओं की बंदिशें मानना जरूरी नहीं समझतीं. जैसे कि, मोहब्बत, पंछी, बादल, हवा, नदिया...इन्हीं की तरह स्वाद भी एक ऐसी ही चीज है, जो बिना वीजा, बिना पासपोर्ट कहीं भी पहुंच सकता है. विज्ञापनों की दुनिया ने तो स्वाद के इस सफर को इतना लंबा कर दिया है कि हर मंजिल, महज एक मुकाम सी लगती है. वे देशों, महाद्वीपों की सीमाओं को तो कभी का लांघ चुके हैं, इन दिनों ब्रह्मांड की सीमाओं को लांघ रहे हैं.   


चाय से चिप्स तक, चाकलेट से  टूथपेस्ट तक, कोल्डड्रिंक्स से बर्गर तक...स्वाद हर जगह अपनी सरहदों को पार करने को उतावला नजर आता है. कहीं किसी अंजान से देश के सभ्यता से कोसों दूर रह रहे भूखों  के मुरझाये चेहरे किसी पिज्जा को देखकर फूलों से खिल उठते हैं तो कहीं किसी दूरस्थ प्रांत के बच्चे किसी कोल्ड ड्रिंक को पाकर एक अपरिचित सी भाषा में अपनी खुशी का इजहार करते नजर आते हैं. यह स्वाद ही तो है, जो परिवार में बहू को सबकी चहेती बनाता है और एक मां को अपने बच्चों की नजरों में दुनिया की सबसे अच्छी मम्मी साबित करता है.

एक विज्ञापन मृत परिजनों को अपनों के बीच वापस आकर कुरकुरों का स्वाद लेते दिखाता है तो दूसरे में एक अंतरिक्ष यात्री के मृत माता-पिता ही उसके स्नैक्स शेयर करने के लिए उसके यान में आ पहुंचते हैं. कहीं कोई शहीद सैनिक अपने पसंदीदा स्नैक्स के साथ परलोक पहुंच जाता है तो कहीं यमदूत धरती पर आकर आत्माओं को ले जाने का अपना काम ही भूल जाता है. एक और फास्टफूड के एड में सृष्टि का रचयिता परमेश्वर, स्वाद में इतना खो जाता है कि गफलत में हर चीज को डबल बनाता चला जाता है. जाहिर है कि सरहदें पार करने के इस सिलसिले में तार्किकता की सीमाएं भी कोई मायने नहीं रखतीं. आखिर मनोरंजन भी तो एक तरह का स्वाद ही है.

स्वाद एक एक ऐसे सस्पेंस नोवल की तरह हमारे सामने होता है, जिसे हम अंत जानने के बावजूद बार-बार पढ़ते हैं और उस खुले रहस्य का लुत्फ लेते हैं, जो हर बार हमें एक नया एहसास देकर जाता है. वहीं कुछ स्वाद, अबूझ रहस्यों के कोहरे में लिपटे रहकर अपनी विलक्षणता को बरकरार रखे हुए हैं. क्या आपने कभी सोचा है कि एक सदी से अपने स्वाद के फार्मूले को मजबूत तिजोरी में बंद रखने के पीछे कोकाकोला का क्या मंतव्य है? क्यों पारले-जी जैसा सोंधा स्वाद किसी और ग्लूकोज बिस्कुट में नहीं आ पाता, क्यों ब्रिटानिया की ब्रेड और अमूल बटर में मौजूद हल्का सा नमकीनी एहसास किसी और ब्रेड या बटर में नहीं मिलता?

क्या स्वाद एक लत है या फिर कोई तलब, जो सिर्फ खुद से ही शांत होती है? क्यों स्वाद एक याद की तरह हमारे मन में रच-बस जाता है, जिसे हम बार-बार जीना चाहते हैं? दरअसल, स्वाद को अमर होने के लिए एक विशेषज्ञता की दरकार होती है, जिसमें प्रेम का होना सोने पे सुहागे का काम करता है. यह प्रेम किसी अपने के प्रति भी हो सकता है और अपने काम के प्रति भी. शायद यही वजह है कि मां के हाथ का बने गाजर के हलवे और आलू के परांठों का स्वाद किसी मुहावरे की तरह हमारी संस्कृति में रच-बस जाता है, यही वजह है कि किसी नुक्कड़ के हलवाई के समोसे हमारे शाम के नाश्ते का हिस्सा बन जाते हैं, जिसके लिए आपको चार-पाँच किमी दूर तक जाना भी नागवारा नहीं गुजरता. 

स्वाद का यह जलवा विज्ञापनों में ही नहीं, बल्कि वास्तविक जीवन में भी इतनी ही प्रभावी भूमिका में देखा जा सकता है. वर्ना उत्तर का समोसा और दक्षिण का डोसा, गुजरात का ढोकला, महाराष्ट्र की पावभाजी और बंगाली रसगुल्ला देश के कोने-कोने में समान रूप से लोकप्रिय न होते. वह भी एक ऐसे देश में जिसके पास भाषा से लेकर पानी तक लड़ने-झगड़ने और एक-दूसरे को नीचा दिखाने के अनगिनत बहाने उपलब्ध हैं. क्या आपने कभी सुना है कि दो राज्यों में किसी चीज के स्वाद को लेकर झगड़ा हुआ हो? क्या कभी किसी ने कहा है कि हम अपने राज्य में पड़ोसी राज्य का फलां व्यंजन नहीं बिकने देंगे, क्योंकि इससे लोग अपने राज्य का व्यंजन खाना छोड़ देंगे? कभी किसी नेता को समोसे या डोसे का बहिष्कार करने का आह्वान करते सुना है? एक इतालवी महिला को बेशक हम अपने देश पर राज न करने दें, लेकिन इतालवी पिज्जे का हम दिल खोलकर स्वागत करते हैं. चीन को भले ही हम दुश्मन नं. दो ( पहला पाकिस्तान ) मानते हों, लेकिन चाइनीज चाउमिन से दोस्ती हमें कबूल है, अमेरिका के साम्राज्यवाद को लेकर हम चाहे कितनी ही त्यौरिया चढ़ाएं, लेकिन अमेरिकी बर्गर के स्वाद के आगे हम नतमस्तक हो जाते हैं. स्वाद, सार्वभौमिक है. अगर भूख हमारे कर्म का पहला पायदान है तो अगला पायदान यकीनन स्वाद ही है.

चलते-चलते
एक पुरानी कहावत है कि अगर किसी को दिल में पहुंचना हो तो पेट का रास्ता सबसे अच्छा है. स्वाद इस रास्ते पर चलने वाला ऐसा वाहन है, जिसे स्टार्ट करने के लिए सिर्फ एक किक की जरूरत होती है. 


संदीप अग्रवाल 
नागपुर 

Monday, October 1, 2012

मेगा से माइक्रो की ओर



नैनो यानी सूक्ष्म टेक्नोलॉजी का दौर है. सब कुछ सिकुड़ रहा है. घर, परिवार, कारें...दिल के भीतर की जगह. विज्ञापन भी इसके असर से अछूते नहीं रहे हैं. अलबत्ता, दिलचस्प रूप से ये अपनी संक्षिप्तता के बावजूद विशालता से ज्यादा असरदार साबित हो रहे हैं. वर्षों पहले टीवी पर आ रहा एक डिटरजेंट का विज्ञापन, जिसकी पंचलाइन थी- इट रिमूव्स स्टेंस, विच यू कैन सी एंड जर्म्स, विच यू कांट’. वो बिल क्लिंटन और मोनिका लेविंस्की स्केंडल का जमाना था, तो विज्ञापन को चर्चित होने के लिए एक अतिरिक्त वजह मिल गई थी. 


 बहरहाल, आज माइक्रोटेक्नोलॉजी ने सब कुछ उलटपुलट कर दिया है. स्टेंस तो सभी क्लिनिंग एजेंट मिटा देते हैं. काबिलियत तो जर्म्स से मुकाबले में है. स्टेंस का दिखाई देना या न देना इतना मायने नहीं रखता है, जितना कि जर्म्स का रखता है. वो जमाना गया, जब आप सिर्फ स्टेंस को ही देख पाते थे और जर्म्स को नहीं. वीडियो प्रोडक्शन की दुनिया में वीएचएस से हाई डेफिनेशन के सफर में अब जम्र्स को देख पाना भी मुमकिन है. और वे सिर्फ दिखाई ही नहीं देते, बल्कि स्टेंस से कई गुना ज्यादा बड़े आकार में दिखाई देते हैं. कभी वे हमारे दांतों के बीच की जगह से निकलकर मुंह से बाहर आकर टेबल पर खड़े होकर हमें डराते नजर जाते हैं, कभी एक खुद डरकर कपड़ों से निकलकर भागते नजर आते हैं. बर्तनों में हो तो वे सब्जी से बड़े दिखाई देते हैं, टायलेट में हों तो कमोड से बड़े...और कई बार वे हवा में तैरते हुए आपकी सांसों में घुस जाते हैं ताकि आप उस उत्पाद को खरीदने के लिए मजबूर हो जाएं, जिसे बेचने के लिए वे एक्सटोर्शन वाली मुद्रा अपना रहे हैं कि ‘किल अस, बिफोर वी किल यू...’ इनका आकार और रंगरूप, दहशत से ज्यादा वितृष्णा उत्पन्न करता है. अजीबोगरीब आकारों और मुखमुद्राओं वाले इन जीवाणुओं का अट्टाहस और चीखपुकार, दोनों ही असह्य हो जाती हैं. यही इनकी प्रभावोत्पादकता है कि जब आप इन्हें देखना बर्दाश्त नहीं कर पाते तो अपने शरीर, कपड़ों अथवा घर में इनकी मौजूदगी कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं. 

इसने कल्पनाशीलता को पनपने के अपार अवसर भी दिए हैं. अब हम दर्द जैसी चीज को अपने कंधे पर सवार होकर हमारे बाल नोंचते या हमारी पीठ पर मुक्के बरसाते देख सकते हैं. अपने भीतर के शैतान संवाद कर सकते हैं और अनेक चीजों के एटम्स कंबीनेशन को देखकर उन पर भरोसा करते हुए उन्हें आजमाने को जोखिम उठा सकते हैं. 

मेगा से माइक्रो की यह यात्रा सिर्फ स्टेंस और जर्म्स की ही नहीं है, बल्कि विज्ञापनों में दिखने वाली छवियों और उनमें व्यक्त भावनाओं की भी है. पहले के दौर में जहाँ विज्ञापनों का मतलब उत्पाद हाथ में लेकर एक कृत्रिम मुस्कान के साथ दर्शकों को उसे खरीदने की सलाह देना भर होता था, वहीं आज इनमें क्लोजअप की जगह लॉन्ग शॉट्स ने ले ली है, जिनमें फन है, एक्शन है और इमोशन है...वेरायटी है. और यह सब तकनीक का ही कमाल है. माइक्रो की बदौलत आप वह सब कुछ भी देख सकते हैं, जो पर्दे पर नहीं दिखाई देता, लेकिन मन की आंखें उसे महसूस कर सकती हैं.

और यही महसूस करना इन विज्ञापनों की ताकत है और हमारी संजीवनी. आज सच यह नहीं कि हम मनुष्य हैं, इसलिए महसूस करते हैं, बल्कि यह है कि हम महसूस करते हैं, इसीलिए हम मनुष्य हैं. वर्ना एक विज्ञापन पर हमारा रिएक्शन भी इतना ही संक्षिप्त होगा, जितना कि किसी ऑनलाइन एक्टिविटीज में, यह सिद्ध करने के लिए कि आप मनुष्य हैं, मशीन नहीं, एक बॉक्स में दी गई अक्षर छवियों को ब्लैंक स्पेस में टाइप करना होता है. 

संदीप अग्रवाल

Saturday, September 15, 2012

‘बैड’ इज मोर अपीलिंग दैन ‘बेस्ट’


वर्षों पहले, अगर आपको याद हो तो टेलीविजन पर एक डिटर्जेंट का एड आता था, जिसमें एक पात्र, दूसरे के बाजू से निकलते हुए  अपने आप से पूछता है कि भला उसकी कमीज मेरी कमीज से सफेद कैसे...और फिर उसे पता चलता है कि किस डिटरजेंट के इस्तेमाल से वह भी उस अजनबी जैसी सफेदी पा सकता है. 


ये इंडिया में वीडियो एडवर्टाइजिंग का आरंभिक दौर था. इसके बाद के कुछ सालों में तो यह अनेक मुकामों से गुजरी. और अंतः में प्रतिस्पर्द्धा के नए-नए कीर्तिमान स्थापित करते हुए दो धाराओं  में  बंट गई. एक अपनी कमीज को दूसरे की कमीज से सफेद बताने में विश्वास रखते हुए उपभोक्ताओं को रिझाने की कोशिश करती हुई और दूसरे सीधे प्रतिस्पर्द्धी  की कमीज को गंदा बताती थी और यह उपभोक्ताओं पर छोड़ देती थी कि वे सामने वाले की कमीज को गंदा समझकर, शाब्दिक हमला करने वाले की कमीज को ही साफ मानें.

विज्ञापनों की भाषा में इसे  कंपयरेटिव   एडवर्टाइजिंग कहा जाता है...और ज्यादा तकनीकी शब्द का इस्तेमाल करना हो तो इसे नाकिंग कापीभी कह सकते हैं. इसी तरह की एक विधा पैरोडी एडवर्टाजिंग भी है, लेकिन उसमें उत्पाद वास्तविक नहीं होता, बल्कि सिर्फ मजा लेने के लिए किसी काल्पनिक उत्पाद को प्रचारित करते विज्ञापन तैयार किए जाते हैं. कई बार पैरोडी की जगह सैटायर का इस्तेमाल किया जाता है, जिसमें उत्पाद को तो कुछ नहीं कहा जाता, लेकिन उसके विज्ञापन का मजाक उड़ाकर अपने उत्पाद का प्रचार किया जाता है. एक सोडा ड्रिंक, मशहूर कंपनियों के कोल्डड्रिंक के विज्ञापन आते ही, उनकी मजाक उड़ाने वाले विज्ञापन पेश कर देता था. यह सिलसिला कई साल तक चला. 

भारत में भले ही कंपयरेटिव  एडवर्टाइजिंग को पेशेवर तरीके से अपनाने की परंपरा ज्यादा पुरानी नहीं है, लेकिन वास्तव में यह एक सदी से भी ज्यादा पुरानी है. कंपयरेटिव एडवर्टाइजिंग का पहला मामला अमेरिका में 1910 में सामने आया था. पहले इसे काफी जोखिम भरा माना जाता था कि यह उत्पाद की पहचान को नुकसान पहुँचा सकती है, कानूनी कार्रवाई का सबब बन सकती है और लोगों में प्रतिस्पद्र्धी के प्रति सहानुभूति पैदा कर सकती है, लेकिन ‘70 के दशक में इसके सकारात्मक पक्षों पर विचार किया गया और इसे प्रोत्साहन दिया जाना शुरू हो गया और एफटीसी (फेडेरल ट्रेड कमीशन) बाकायदा ऐसे विज्ञापनदाताओं को बढ़ावा देती थी, जो  प्रतिस्पर्द्धी का खुलेआम नाम लेकर रचनात्मक विज्ञापन पेश करते थे. एफटीसी का मानना था कि इससे उत्पादों की गुणवत्ता में नयापन और सुधार आएगा.

यह मुकाबलेबाजी बहुत दिलचस्प रही है. अगर कोई चैनल इस पर भी रियलिटी शो बनाने का जोखिम उठाए तो वह टीआरपी में काफी ऊपर जा सकता है. मिंट की गोली का एक विज्ञापन कहेगा कि हमारे उत्पाद का छेद उसे विश्वस्त बनाता है, तो दूसरी गोली का विज्ञापन कहेगा कि क्या आपके दिमाग में छेद है, जो छेद वाली मिंट खाएंगे. एक नमक कहेगा कि दूसरे नमक को टाटाबोल दो तो दूसरा कैप्टनको गोली मारने की राय देगा. एक बिस्कुट कंपनी बताएगी कि मोना-को’  टॉप बाटम प्राब्लम है तो एक डिटरजेंट कंपनी और ज्यादा हिम्मत दिखाएगी और सीधे-सीधे कहेगी कि उसका डिटरजेंट टाइड से ज्यादा सफेदी देता है. दर्शकों का तो पता नहीं, लेकिन चैनलों के लिए यह जरूर आम के आम और गुठलियों के दाम जैसा फायदेमंद हो सकता है. 

एक पुरानी कहानी है, जिसमें राजा अपने  बुद्धिमान मंत्री के सामने एक लकीर खींचकर उसे बिना मिटाए छोटी करने की चुनौती पेश करता है तो मंत्री उसके ऊपर एक उससे भी बड़ी लकीर खींच देता है. लेकिन, आज के फटाफट कल्चर वाले दौर में बड़ी लकीर खींचने के लिए जो वक्त चाहिए, उसका काफी टोटा है, इसलिए लकीर को मिटाकर ही खुद को बड़ा साबित करने का शार्टकट अपनाने वालों की तादाद बढ़ रही है. और कंपयरेटिव एडवर्टाइजिंग अपने मूल उद्देश्य को बहुत पीछे छोड़ चुकी है. 

दूसरे की कमजोरी को अपनी ताकत बताने का यह सिलसिला लंबे समय से चल रहा है. राजनीति में भी और विज्ञापनों में भी. जिस तरह हमारे नेता अपनी खूबियों की बजाए, विरोधी की कमियां बताने में ज्यादा विश्वास करते हैं, वैसे ही विज्ञापन भी कर रहे हैं. बस प्रतिशत का फर्क है. शायद इसकी वजह यह है कि विज्ञापनों पर अभी भी प्रतिस्पर्द्धा आयोग और एडवर्टाइजिंग स्टेंडर्ड काउंसिल जैसी नियामक संस्थाओं का अंकुश है, जबकि राजनेताओं पर किसी भी शाब्दिक मुकाबलेबाजी के लिए कोई पाबंदी नहीं है. देखा जाए तो यह स्थिति विज्ञापनों के हित में है, क्योंकि इसी से राजनेताओं के विपरीत, उनकी विश्वसनीयता अभी तक बची हुई है.

                                                                                                                                                                                                               -संदीप अग्रवाल , नागपुर 

Friday, September 14, 2012

पिक्चर अभी बाकी है !

कौतुहल मनोरंजन की किसी भी विधा की एक सामान्य शर्त है, जो देखने-पढ़ने वाले की रुचि उसमें बनाए रखती है. बीती सदी के अंत तक विज्ञापन अमूमन इससे बचते ही रहे हैं. लेकिन, अब ऐसा नहीं है. बीते कुछ सालों में विज्ञापनों ने कौतुहल को अपनाकर रचनात्मकता और रोचकता, दोनों को नए आयाम दिए हैं. पुराने दौर के विज्ञापन जहाँ एक ही ट्रैक पर सालों-साल चलते रहते थे. अब वे नित नई-नई कहानियां कहते नजर आ रहे हैं. कई बार ये कहानियां एकदम स्वतंत्र होती हैं, तो कई बार एक-दूसरे से संबद्ध. लेकिन, हर बार हम यह पाते हैं कि एक प्रोडक्ट का अपने आप में मुकम्मल लगने वाला विज्ञापन, अक्सर आगे के लिए कुछ और कहने की गुंजाइश छोड़ता हुआ खत्म होता है.

उदाहरण के लिए, हम पैरागान चप्पल के विज्ञापन को ही लेते हैं. इसके पहले भाग में एक सरकारी आफिस में अपना काम करवाने के लिए चक्कर काटने वाला युवक अधिकारी से शिकायत करता है कि चक्कर काटते-काटते उसकी चप्पल घिस गई हैं, तो वह उसे पैरागान की चप्पल पहनने की सलाह देता है और दर्शकों को अपनी ढिठाई से हतप्रभ कर देता है. सालों से यही विज्ञापन हमें गुदगुदाता आ रहा था, लेकिन कुछ महीनों से इसका अगला हिस्सा हम यह देख रहे हैं कि फाइल लेकर आते युवक को देखकर वही अधिकारी टेबल्स के बीच में छिप जाता है और उसकी झूठी बीमारी का बहाना सुनकर युवक को हम यह कहते सुनते हैं कि कोई बात नहीं, वह कल फिर आ जाएगा. और अधिकारी इस बात पर अफसोस जाहिर करता है कि उसने युवक को पैरागान चप्पल पहनने की सलाह दी थी.


इसी तरह ड्यूलक्स पेंट का रास्कल रेड विज्ञापन पहले पार्ट में एक लड़की के खब्ती बाप को उसके साथ आए लड़के को देख कर इरीटेट होते हुए  दिखाया गया है तो अगले पार्ट में वह उसके साथ बड़ी आत्मीयता से बतियाता हुआ नजर आता है.एक और विज्ञापन नोकिया का दिखाओ अपना स्टैंडर्डहै, जिसमें कालेज में नायिका का वीडियो बनाने की कोशिश कर रहे एक शोहदे को नायक उसके गांव से भी ज्यादा बड़ी मेमोरी वाला फोन दिखाकर लज्जित करता है, और इसके अगले पार्ट में वही नायक है, वही नायिका और वही शोहदा, लेकिन लोकेशन बदल गई है, अब यह एक शादी के माहौल में घट रहा है. ऐसे ही कैडबरीज के नायिका को घर छोड़ने का शुभ काम करने जा रहे नायक, वाले विज्ञापन के इसके अगले पार्ट में उसे नायिका के साथ चाकलेट शेयर कर वक्त गुजारते देखा जा सकता है तो वहीं एयरटेल के जो मेरा है वो तेरा है...को उसी के जिंदगी में हरेक दोस्त जरूरी होता हैके नेशनल क्रेज बन जाने वाले स्लोगन की अगली कड़ी के रूप में देखा जा सकता है. आजकल इसी जमात में एक और विज्ञापन शामिल हुआ है, जिसमें पिछली कड़ी में मच्छर की बजाए जवानी के दिनों का फोटो खोजकर लाने वाला बूढ़ा पति, किसी परिचित के घर से मच्छर लाके पत्नी से लगाई शर्त जीतने की कोशिश करता है.

इन  विज्ञापनों में जो बदलाव है, वह लंबे समय से चल रही एकरसता को तोड़ने के लिए है. लेकिन, कई बार बदलाव को नई सूचना देने के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है, जैसे कि मैक्स न्यूयार्क लाइफ का विज्ञापन. इसके पहले भाग में ग्राहक के पास बैठे इंश्योरेंस एजेंट के भीतर का शैतान उसे झूठ बोलकर ग्राहक को फंसाने के लिए उकसाता है, लेकिन वह सच बोलने पर आमादा है. वहीं इसके पार्ट-2 वाले विज्ञापन का इस्तेमाल ग्राहक को यह बताने के लिए किया गया है, कि मैक्स न्यूयार्क लाइफ अब न्यूयार्क टैगहटाकर मैक्स लाइफ बन गया है. लेकिन, नाम बदल जाने के बावजूद अपने ग्राहकों के लिए उसकी प्रतिबद्धता नहीं बदली है. 

जरूर नहीं कि बदलाव और नएपन के लिए किसी एक विज्ञापन की ही कहानी को आगे बढ़ाया जाए. बहुत सारे ऐसे विज्ञापन भी हैं, जो एक ही समय में एक ही थीम पर अलग-अलग कहानियों के साथ अलग-अलग तरह का प्रभाव छोड़ रहे हैं. कहीं ये गुदगुदाते हैं, कहीं हैरान कर जाते हैं, कहीं प्रेरणा बनते नजर आते हैं तो कहीं भावनाओं के समंदर में ले जाते हैं. कैडबरीज, टाइड, आइडिया, अमूल माचो, टाटा स्काई, मैगी, पेप्सी, कोकाकोला और थम्सअप कोल्ड ड्रिंक...ऐसे अनेक उत्पाद हैं, जो अपने विज्ञापनों  में निरंतर विविधता को अपना रहे हैं. 

नई-नई कहानियों वाले विज्ञापन हों, या सीक्वल, मकसद दोनों का एक है...अपने उत्पाद का प्रचार लेकिन मनोरंजक तरीके से, ताकि टारगेट को कुछ सेकेंड तक बांधकर रखा जा सके. वर्ना उसके हाथ में थमे रिमोट के बटन दबना शुरू हो जाने में सेकेंड भी नहीं लगता.  

वैसे भी अधूरी पिक्चर किसे पसंद है? 
संदीप अग्रवाल


Friday, June 8, 2012

पिताजी की पतलून


इन दिनों एक विज्ञापन काफी लोकप्रिय हो रहा है, जिसमें रमेश और सुरेश पिताजी की पतलून छोटा कराने जाते हैं और चाकलेट के स्वाद में कुछ ऐसे खो जाते हैं कि पतलून को बार-बार छोटा कराते जाते हैं और वह छोटी होते-होते निकर में तब्दील हो जाती है. कुछ ऐसी ही हालत टेलीविजन विज्ञापनों की भी हो गई है. कोई भी विज्ञापन जब नया होता है, तो बहुत लंबा होता है. लेकिन बाद में, खर्च बचाने के लिए उसे एडिट करके मूल विज्ञापन से काफी छोटा कर दिया जाता है.

कई बार तो यह एडिटिंग इतनी बेरहम हो जाती है कि बेसिक आइडिया को ही नष्ट कर देती है. जैसे कि एक विंटर वियर के एड के मूल एडिशन में पूरी कहानी दिखाई जाती थी, जिसमें बिस्तर पर लेटा एक असहाय बूढ़ा, उसके पास बैठा विकलांग बेटा, किसी तूफान की तरह दरवाजा भीतर गिराकर प्रवेश करते उसके सर्दी पीडि़त सगे-संबंधी, बिस्तर से उतारकर पलंग को आग के हवाले करके गर्मी का सुख लेते सभी परिवारजन, कल की चिंता की अभिव्यक्ति होते ही अपनी बैसाखी को पीछे छिपाता विकलांग बेटा...ये एक मुकम्मल कहानी थी, जिसे जब संपादित रूप में प्रदर्शित किया गया तो उसका एक बड़ा हिस्सा इस तरह कट चुका था कि समझ में ही नहीं आता था कि असल माजरा क्या है.

ऐसे अनेक एड हैं, सैफ की बड़े आराम से सीरीज के एक एड में वह नवाब साहब के कत्ल के सभी संदिग्धों से एक-एक कर पूछते हैं कि कत्ल के वक्त वह क्या कर रहा था...और जब वह हताश हो उठते हैं तो नवाब साहब उठकर कहते हैं कि उनका कत्ल किसने किया. जब यह विज्ञापन छोटा हुआ तो सैफ की एंट्री और नवाब साहब से कातिल का नाम बताने की गुजारिश के जवाब में नवाब साहब के कातिल की ओर इशारा करने के बीच कुछ छूटा सा साफ नजर आता है. क्योंकि इसमें सिर्फ जासूस, मकतूल और कातिल हैं...संदिग्ध एक भी नहीं. इसी तरह रमेश-सुरेश के पहले विज्ञापन में, जिसमें वे एक दुकान पर मिलते हैं, तीन हिस्से थे, बाद में बीच का हिस्सा निकल जाने के बाद दो ही रह गए.

बार-बार मंदी के मुहाने पर पहुँचती दुनिया में विज्ञापनदाताओं की मजबूरी समझी जा सकती है. जब पैसा कम होगा तो पतलून की जगह निकर से काम चलाना पड़ता है. लेकिन, अब तो टांगें ही छोटी करने की कवायद शुरू हो गई है. ट्राई के नए दिशा-निर्देशों के मुताबिक अब टेलीविजन चैनल एक घंटे में बारह मिनट से ज्यादा विज्ञापन नहीं दिखा सकेंगे. यही नहीं, दो कमर्शियल ब्रेक्स के बीच का फासला भी तय कर दिया गया है, जो फिल्मों के बीच कम से कम आधा घंटा और सीरियल्स आदि के बीच कम से कम पंद्रह मिनट का होगा. इससे दर्शक को कितनी राहत मिलेगी और चैनलों का कारोबार कितना प्रभावित होगा, इस बारे में कुछ कह पाना मुश्किल है. पर  पहली संभावना जिस बात की नजर आ रही है, वह यह है कि विज्ञापनों के लिए टाइम स्लॉट  कम होने के बाद चैनल विज्ञापनों की दरें बढ़ा सकते हैं. आखिर उन्हें भी तो ‘सरवाइव’ करना है.

हालांकि अभी भी अधिकांश चैनल के पास विज्ञापनों का टोटा ही है. आपने कई चैनलों पर महसूस किया होगा कि अनेक चैनलों पर एक ही विज्ञापन एक ही ब्रेक में 5-6 बार से भी ज्यादा दिखाया जा रहा होता है. लेकिन, कोई भी चैनल शायद ही इस बात को स्वीकार करेगा कि कुछेक विज्ञापनों को बार-बार दिखाने के पीछे उसे कम विज्ञापन मिलना एक बड़ी वजह है. ऐसे में अगर चैनल रेट बढ़ाते हैं, तो विज्ञापनदाताओं के सामने भी अपने विज्ञापनों की लंबाई कम करने के सिवा कोई चारा नहीं रहेगा. इसका असर कहानी पर पड़ना लाजमी है. अब देखना यह है कि कौन विज्ञापनदाता पुरानी कहानी को आधा-अधूरा दिखाकर पैसा बचाते हैं और कौन बदली हुई समयावधि के हिसाब से नई कहानियां पेश करने की जहमत उठाना गवारा करते हैं.

वर्ना तो यह भी हो सकता है कि अगली बार सैफ जब एड का वक्त कम हो जाने का हवाला देते हुए नवाब साहब से खुद ही कातिल का नाम बताने की गुजारिश करें तो नवाब साहब उनके हाथ से बनियान लेकर बोलें  कि रहने दो सैफ, मैं ही स्क्रीन पर बनियान की तारीफ कर देता हूँ... तब तक तुम करीना के साथ शादी की शॉपिंग कर आओ... 

Friday, May 18, 2012

कमाल के किरदार !



किसी भी रचना और किरदार का रिश्ता ऐसा ही होता है, जैसा कि जिस्म का और रूह का. रचना अगर जिस्म है, तो किरदार उसकी रूह. फिल्मों, उपन्यासों, कहानी-नाटकों से कलाकृतियों तक, किरदार लगभग हर जगह मौजूद रहता है...किरदार न हो तो रचना कितनी भी महान क्यों न हो, दर्शक-पाठक से नाता नहीं जोड़ पाती. 

और तो और, अब तो विज्ञापन भी किरदार के बिना अधूरे से ही लगते हैं...खासकर टेलीविजन के विज्ञापन. जब से टेलीविजन के पर्दे पर रंग उतरे हैं, तभी से विज्ञापनों की रचनात्मकता ने सिर्फ ‘उत्पाद के फोटो के साथ उसे इस्तेमाल करने का मशवरा/गुजारिश/लालच देते  मॉडल्स’ वाले दौर से बाहर निकलने की कवायद शुरू कर दी थी, जो बढ़ते-बढ़ते ऐसे मुकाम पर आ चुकी है, जहाँ प्रोडक्ट से ज्यादा किरदार अपना असर छोड़ जाते हैं.

एक किरदार के तौर पर स्टारडम की बुलंदियों को छूने वाला पहला नामधारी ( जिसकी पहचान उसके नाम से की जा सके) किरदार संभवतः ललिता जी का है, जो तर्जनी से माथे को ठकठकाकर बोली गई अपनी पंचलाइन ‘सर्फ की खरीदारी में ही समझदारी है’ से टेलीविजन दर्शकों के दिलो-दिमाग पर छा गई थीं. इससे पहले सिर्फ फिल्मी सितारों की केंद्रीय भूमिका वाले विज्ञापन ही ऐसी छाप छोड़ पाते थे. एक अल्पज्ञात, नॉन स्टार मॉडल को मिले इस अप्रत्याशित स्टारडम ने ‘फेस टू नेक्स्ट डोर’ वाले ऐसे किरदारों के लिए रास्ता खोल दिया. हालांकि इससे पहले भी ‘न्यूट्रामूल दादा’, ‘कम्प्लान ब्वाय’ जैसे किरदार आ चुके थे. लेकिन बिना एडजेक्टिव के उनकी अपनी कोई शख्सियत नहीं थी.

इसके बाद अनेक विज्ञापनों में,अनेक किरदार सामने आते गए. कुछ आए-गए वाले थे तो कुछ ऐसे, जो दर्शकों की स्मृति में अमर हो गए. कई तो ऐसे भी किरदार आए, जिनके द्वारा विज्ञापित उत्पादों को आप शायद भूल भी गए हों, लेकिन उन किरदारों को नहीं भूले होंगे तो कई किरदार ऐसे भी, जिनके चेहरे भी आपको याद नहीं होंगे, लेकिन नाम नहीं भूले होंगे. क्या आपको पप्पू पास हो गया वाले कैडबरिज के विज्ञापन के पप्पू का चेहरा याद है, एशियन पेंट के विज्ञापन में ‘नया घर, नई गाड़ी, नई मिसेज...बढि़या है ’ में न आपको यह डायलाग बोलने वाले का चेहरा याद होगा, न सुनने वाले का, लेकिन सुनील बाबू नाम हमारी स्मृतियों में ऐसे बैठ चुका है, जैसे कि हमारा ही कोई सगा-संबंधी हो.

एक ओर नाम इतना ठोस असर छोड़ते हैं, वहीं अनेक ऐसे किरदार भी हैं, जिनके नाम विज्ञापन में कहीं नहीं सुनने में आते, लेकिन वो किरदार अपने चेहरों के साथ हमारे दिमाग में दर्ज हो जाते हैं. जैसे नोकिया के विज्ञापन में स्टेटस दिखाने वाला डैडी जी का शोहदा बेटा, सेंटर फ्रेश का ‘पापा, मैं फिर से फेल हो गया...’ बताकर चांटा खाने वाला बेटा, कुरकुरे की जूही चावला, महाशय दी हट्टी यानी एमडीएच मसालों के विज्ञापन में राजा-महाराजा की तरह हाथी पर सवार होकर आने वाले वयोवृद्ध महाशय जी, वोडाफोन (पहले हच) का हर समय पीछे-पीछे चलने वाला मासूम सा डॉगी, अंजान लड़की से चाकलेट मांगकर उसे घर छोड़ने का ‘अच्छा काम’ करने वाला एक सामान्य रंगरूप वाला नौजवान, मेंटोस खाकर बंदर से आदमी बनने वाला बंदर और दद्दू...सिलसिला लगातार जारी है. 

आज भी हमारे पास तरह-तरह के किरदार हैं... हर समस्या के समाधान का आइडिया देने वाले ‘सर जी’, हर मुश्किल हालात को अपने अनूठे अप्रोच से दिलचस्प बना देने वाले एनिमेटेड जोजो, माथे पर त्यौरियां चढ़ाए रहने वाला बॉस  हरी साडू, पेस्ट लेकर कीटाणुओं से लड़ते पप्पू और पापा, अपने ही बैंक को लूटने आया बेवकूफ सिक्योरिटी गार्ड बजरंगी, फ्लर्ट दोस्त को ठेंगा दिखाती अपर्णा उर्फ एप्स, पिताजी की पतलून को छोटी कराने आए भुलक्कड़ रमेश-सुरेश...एक लंबी फेहरिश्त है ऐसे किरदारों की, जो टेलीविजन के रास्ते आपके ड्राइंग-रूम में ही नहीं, बल्कि आपके सब कॉशस में प्रवेश कर चुके हैं.

पिछले कुछ अर्से से फिल्मों में नजर आने वाले किरदारों को हुबहू उसी तरह विज्ञापन में उतारने का एक नया चलन शुरू हो गया है. मसलन, सलमान खान दबंग के चुलबुल पांडे के गेटअप में एक खास ब्रांड की मोटरसाइकिल पर बैठकर बिल्ला का पीछा करते हैं तो सैफ खान एजेंट विनोद के गेटअप में पुंगी बजाते हुए एक बनियान का प्रचार करते नजर आते हैं...और रणवीर कपूर ने तो सभी को पीछे छोड़ दिया है. बाकी किरदार जहाँ फिल्म के रिलीज होने के बाद विज्ञापन में नजर आए, वहीं उनकी  फिल्म बर्फी के रिलीज से पहले ही वे उसके एक किरदार के गेटअप में अभी से एक सेल्युलर फोन सर्विस का एड करते नजर आ रहे हैं. अभी तक फिल्मों के बीच में प्रोडक्ट का चुपके से प्रचार करने का चलन था, जिसे सेरोगेट एडवर्टाइजिंग कहा जाता है. रणवीर ने टेबल उलट दी है, अब विज्ञापन के बीच फिल्म का प्रचार हो रहा है. सही है, कभी नाव गाड़ी पर तो कभी गाड़ी नाव पर... 

चलते-चलते
एक किरदार किस तरह वक्त के तमाम थपेड़ों को धता बताते हुए हमेशा तरोताजा बना रह सकता है, इसकी सबसे बेहतरीन मिसाल है अमूल की ‘‘अटरली...बटरली...सो डिलीसियस’’ सीरीज की मपेट गर्ल और उसके संगी-साथी....जो पिछले साढे़ चार दशकों से, देश-दुनिया की हर छोटी-बड़ी घटना पर अपनी चुटीली और रचनात्मक टिप्पणियों से हर उम्र के उपभोक्ताओं को लुभाती चली आ रहे हैं. दिलचस्प बात यह है कि अमूल गर्ल की रचना पोल्सन बटर गर्ल को मात देने के लिए की गई थी. 1967 में शुरू हुई यह विज्ञापन श्रंखला, विश्व की सबसे लंबे समय तक चलने वाली सीरीज बन गई है. 1976 के बाद आई इसकी चुनिंदा कहानियां  http://www.amul.com/m/amul-hits वेबसाइट पर संयोजित हैं. चाहे तो आप भी तीन पीढि़यों से चले आ रहे इस सागा का लुत्फ उठा सकते हैं.

संदीप अग्रवाल , नागपुर 




Monday, May 14, 2012

ये ‘अंडर’ की बात है...




वर्षों पहले रेडियो पर एक विज्ञापन लगभग रोज सुनने को मिलता था, जिसमें एक पात्र दूसरे से पूछता है कि क्या बात है, बड़े खुश नजर आ रहे हो? दूसरा जवाब देता था, ये अंदर की बात है. इस पर पहला पूछता था कि क्यों, रूपा बनियान पहन रखी है क्या? और दूसरे की हाँ में स्वीकारोक्ति और श्रोताओं को रूपा बनियान पहनने के सुझाव के साथ विज्ञापन खत्म हो जाता था. 

अब टेलीविजन, खासकर सेटेलाइट टेलीविजन के वर्चस्व से अंदर की बात पूरी तरह बाहर आ गई है. अब टेलीविजन पर अंडरगारमेंट्स के विज्ञापनों को देखना, तरह-तरह के अनुभव देता है. ये कभी हमें हंसी दिलाते हैं, कभी खिझाते हैं और कभी बुद्धू बनाते हैं.

एक विज्ञापन एक खास किस्म का बनियान पहनकर कभी आपको थिएटर की टिकट विंडो पर लगी लंबी लाइन में सबसे आगे खड़े होने का अधिकार दिलाता है और कभी ट्रैफिक पुलिसमैन को सड़क मंत्री की लाल बत्ती वाली गाड़ी को आपके रास्ते में आने से रोकने की ताकत देता है. वहीं दूसरे विज्ञापन में एक ब्रांड विशेष का बनियान पहनने वाला अभिनेता, बड़े आराम से तीन-चार गुंडों को विकलांग बना देता है, कत्ल की गुत्थी सुलझा लेता है. तो एक और विज्ञापन का नायक ‘ईव्ज टीजर्स’ के होश ठिकाने लगा देता है. एक और अंडरवियर विज्ञापन पहनने वाले को दुर्घटनाओं से बचाता है.

अब आप सोचते रहिए कि एक अंडरवियर में ऐसे कौन से तत्व होते हैं, जो पहनने वाले में इतनी ताकत भर देते हैं कि वह चार-छह खतरनाक बदमाशों से अकेले निपट सके. उसमें कौन से पवित्र मंत्र लिखे होते हैं, जो पहनने वाले को आने वाली आपदाओं से बचाते हैं. आपको इस सवाल का भी कोई गले उतरने वाला जवाब शायद ही मिले कि कपड़ों के नीचे पहनने वाली चीज की ब्रांड वैल्यू क्यों होती है और क्यों एक ब्रांड का अंडरवियर, दूसरों के मुकाबले दो से तीन गुनी कीमत वसूलता है.

इस ब्रांड को पहनने वालों का तर्क है कि यह उन्हें आत्मविश्वास से भर देता है.एक अंडरवियर का तो ब्रांड नेम ही आपको वीआईपी होने की अनुभूति देता है. इस फीलिंग के पीछे क्या लॉजिक  है, ये समझना बड़ा मुश्किल है. आप कौन से ब्रांड की शर्ट या जींस पहनकर लोगों से मिलते हैं, ये आपके स्टेटस को स्टैब्लिश करने में मददगार हो सकता है. लेकिन उस शर्ट या पैंट के नीचे आपने किस ब्रांड के अंडरवियर पहने हैं, इसका भी आपके स्टेटस से ताल्लुक है, इसे कैसे एक्सप्लेन किया जाए.

एक बड़ा दिलचस्प सवाल है कि एक सुपरमैन और  कॉमनमैन में क्या फर्क है? जवाब- कॉमन मैन अपना अंडरवियर पैंट के नीचे पहनता है और सुपरमैन पैंट के ऊपर...अगर अंडरवियर्स के एडवर्टाइजमैंट्स के एड- ऑंस  ( कॉन्फिडेंस, लक, चार्म, करेज, स्ट्रेंग्थ आदि ) पर यकीन करें तो इन्हें पैंट के अंदर पहनकर भी एक  कॉमनमैन  सुपरमैन होने की फीलिंग को एन्ज्वाय कर सकता है... और अगर पैंट पहनना भूल जाए तो भी, एक और अंडरवियर के विज्ञापन में सूखता 'ट्विंग' अंडरवियर उठाकर भागने वाले चिंपैंजी की तरह, नईनवेली हाउसवाइफ के शर्माने का आनंद तो ले ही सकता है. 

चलते-चलते...

इन दिनों अंडरवियर बम चर्चा में है. एफबीआई के सूत्रों के मुताबिक एक ब्रिटिश अंडरकवर एजेंट ‘बड़े आराम से’ कुख्यात आतंकवादी ग्रुप अलकायदा की यमन इकाई में सेंध लगाकर घुस गया और उसने अमेरिका में ‘अंडरवियर बम विस्फोट’ से विमान उड़ाने की साजिश को नाकाम कर दिया. इस घटना पर  भी तो एक और एडवर्टाइजमैंट बनाया जा सकता है ना?

Saturday, March 17, 2012

दबंग बीबियों की दुनिया

हकीकत में हमारे देश में स्त्रियों की चाहे जो दशा हो, लेकिन विज्ञापनों की दुनिया में उसकी छवि बहुत तेजी से बदल रही है. सिनेमा और सोप ओपेराज में बेशक वह अभी भीडॉल याआइडोल की स्टीरियोटाइप इमेज में कैद हो, लेकिन विज्ञापनों की औरत इस ककून को तोड़कर बेहद कॉन्फिडेंट और अपनी डिग्निटी को लेकर बहुत कॉशस नजर आने लगी है. इन विज्ञापनों में चाहे वह किसी भी भूमिका का निर्वहन कर रही हो, लेकिन अपनी अस्मिता से कोई समझौता उसे स्वीकार नहीं है. यह कुछ साल पहले तक छोटे पर्दे के विज्ञापनों पर हावी उस दौर के एकदम उलट है, जब वह किचेन में खाना पकाने या बाथरूम में कपड़े धोने के अलावा कोई और काम करते नजर ही नहीं आती थी.
खासकर, विज्ञापनों में दिखने वाली बीबियों के एटिट्यूड में तो जबर्दस्त क्रांतिकारी बदलाव आया है. अगर आपको बरसो पुराना वह विज्ञापन याद है, जिसमें एक दुकानदार अपने ग्राहक को राय देता है कि अगर वह अपनी बीबी को सचमुच प्यार करता है, तो उसे एक खास ब्रांड का कुकर खरीदना चाहिए. लेकिन, अब प्यार को साबित करने के लिए सिर्फ इतना भर काफी नहीं है. आज की विज्ञापन-नायिका हर चीज में बराबरी का हक मांगती नजर आती है. कहीं वह अपनी पसंद का सीरियल न देखने देने पर सजा के तौर पर उसे ऑफिस में लंच के लिए खाली टिफिन थमा देने या लिफ्ट की बजाए सीढि़यों से जाने के लिए मजबूर कर देने का दम रखती है तो कहीं वह उसके आग्रहकी परवाह न करते हुए अपने थ्रीजी के साथ बिजी नजर आती है. ऐसे बहुत सारे विज्ञापन आप इन दिनों देख सकते हैं, जिनमें नारी घर-परिवार पर अपनी हुकूमत का झंडा फहराती नजर आती है. घर और पति पर वह दबदबा जरूर बनाकर रखती है, लेकिन दादागिरी नहीं चलाती.
यह सही है कि वह अर्धांगिनी से स्वामिनी में बदल गई है. लेकिन, इसका अर्थ यह नहीं कि उसकी भूमिका सिर्फ अधिकार और बागडोर हासिल कर लेने तक ही सीमित है. वह सिर्फ परिवार के हाथों में थामी डोरियों से बंधी कठपुतली के खोल से बाहर आई है, अपने दायित्वों के नहीं. जितनी सजग वह एक गृहिणी के रूप में अपने अधिकारों को लेकर है, उतनी ही अपनी जिम्मेदारियों को लेकर भी है. वह देश की हालत पर खिन्न अपने पति को सोच बदलकर देश बदलने का गुरुमंत्र दे सकती है, ओवरवेट हो जाने पर उसके जन्मदिन पर उसे एक पर्सनल ट्रेनर गिफ्ट में दे सकती है. वह अपनी पसंद के साथ-साथ अपने पति और बच्चों का भी पूरा ख्याल रखती है. एक वित्तीय संस्थान के विज्ञापन में वह खर्चीले पति को खर्च से रोकती नजर आती है, ताकि उनके भावी बच्चे का भविष्य सुरक्षित रहे. यही नहीं, पति के लिए एक दोस्त की भूमिका निभाने में भी वह पीछे नहीं है. वह उसके साथ आंख-मिचोली खेलते हुए शरारतन अपनी बूढ़ी गवर्नेंस को उसके सामने लाकर खड़ा कर सकती है, उससे छुआछुई खेल सकती है और मोच आने पर उससे सिर्फ एक प्रेमासिक्त स्पर्श की अपेक्षा करती है. एक सच्ची सहचरी की तरह वह हर जरूरत के वक्त उसके साथ है.
इन्हीं विज्ञापनों के बीच के खाली स्लॉट में जब आप कोई ऐसा सास-बहू कार्यक्रम देखते हैं, जहाँ वह या तो साजिशों से बचने में मशगूल है या साजिशें रचने में तो आप इन विज्ञापनों को याद करके सुकून की सांस ले सकते हैं कि कोई तो जगह है, जहाँ एक हिंदुस्तानी बीवी को उसके सही रूप में पेश करने की ईमानदार कोशिश की जा रही है.
-संदीप अग्रवाल